अल्पायु में ही माँ को ससुराल जाना पड़ा। वहाँ माँ अनेक सांसारिक बंधनों में बंध गई और उनकी ऊपर कई सारी जिम्मेदारी आ गई। ससुराल में जाने के बाद मां को और अधिक काम करना पड़ता। मां पापा दादा और दादी सब एक साथ रहते । मेरे पापा के एक छोटे भाई भी थे जो कमाने के लिए लखनऊ जाते थे।
पापा तीसरी चौथी में अच्छे से पढाई नहीं करते थे। रोज स्कूल भी नहीं जाते थे। पापा अपने गुरुजी से बहुत डरते थे क्योंकि मार भी पड़ती थी। पापा बस पांचवी तक की पढ़ाई कर पाए , उससे आगे की पढ़ाई करने के लिए वे खम्हरिया जाना चाहते थे पर दादी उनको 4 किमी दूर धरमगढ़ भेजना चाहती थी। धरमगढ़ जाने वाली सड़क कच्ची थी ,बरसात के मौसम में तो सड़क कीचड़ से ढकी रहती थी और जाने का साधन भी नहीं था इसलिए पापा खम्हरिया जाना चाहते थे ।फिर दादी ने ही पापा को आगे पढ़ने से मना कर दिया। तो पापा घर पर ही दादा दादी की काम में मदद करने लगे। पापा गर्मी के दिनों में ट्रैक्टर में मिट्टी भरने का काम करने के लिए जाते थे और आषाढ़ लगने के पहले के दिनों में 5:00 बजे से नांगर लेकर खेत में जोतने जाते थे। दोपहर के 2:00 बजे तक धूप में उनको नांगर जोतना पड़ता ।एक घंटा बैलों को आराम करवा कर वे फिर से 3:00 से लेकर 6:00 बजे तक नागर जोतते। दिनभर के इस काम के लिए मेहनताना के रूप में उन्हें बस एक पैली धान दिया जाता।(*पैली -एक छोटा सा डिब्बा जिसमें लगभग एक किलो धान आ जाता )
मां को 4:00 बजे उठकर घर का सारा काम करना पड़ता ।उठकर सबसे पहले घर को गोबर से लिपती बुहारती।चूल्हे में खाना बनाती। खाना बनाते बनाते हैंडपंप से गाय के लिए पानी लाती। कई बार आग बुझ गया रहता उसको दोबारा सुलगाती। हमारे कुएं से पीने के लिए पानी लाती। बर्तन साफ करती। खाना बनाकर गौशाला का गोबर कचरा साफ करती ।गायों को दाना पानी देती। कोठार में गोबर ले जाकर उसको थोपती।
गर्मी के दिनों में रात का बासी खाना लेकर मां दादा और दादी हमारे गांव से 6 किलोमीटर दूर एक गांव दानीघठोली में पैदल चलकर गोदी कोड़ने जाते। *(पहले जेसीबी ना होने के कारण तालाब या नहर बनाने के लिए ग्रामीण लोग ही मिट्टी खोदकर बाहर निकालते थे और उस जगह को गड्ढा करते थे जिसे गोदी कहा जाता ) ।सारी औजारों जैसे गैती, फावड़ा ,तसला और झउहा को माँ ही सिर पर रखकर उतने दूर तक लाती ले जाती थी ।*(झउहा बास के पतले पतले फांको से टोकरी के आकार का बना होता था) । दादी झउहा में बहुत अधिक मिट्टी भर देती थी जिसको सिर पर रखकर मां को ऊंचाई में चढ़कर फेंकना पड़ता।जिससे मां को बहुत परेशानी होती फिर भी मां दादी को कुछ नहीं कहती और सब कुछ सह लेती । मां छुट्टी होने का इंतजार करती रहती क्योंकि यह काम सुबह से लेकर एक बजे तक चलते रहता था और कड़ी धूप भी रहती तो मां बहुत थक भी जाती थी। पर माँ कभी थककर बैठती नहीं थी सभी आराम करते तभी मां को भी आराम मिलता। काम 1बजे खतम होती पर बहुत अधिक धूप की वजह से दो तीन घंटे उन्हें वही पर रुकना पड़ता। 3-4 बजे सभी फिर पैदल चलकर घर वापस आते। आने के बाद खाना खाकर उन्हें खंती कोड़ने के लिए खेत जाना पड़ता *(मेड़ के पास के मिट्टी को कोड़कर मेड़ पर मेड़ को ऊँचा करने के लिए मिट्टी को चढ़ाया जाता जो खंती कहलाता) । शाम को सूरज ढलने के बाद वे सब घर आते। घर आकर भी मां का काम खतम नहीं होता। फिर बर्तन साफ करती, पानी भरती और खाना बनाती। खाना बनाकर सबको परोसती और अंत में खाना खाती। खुद खाने के बाद सारा बर्तन साफ करके सोती।
माँ थक जाने के बावजूद भी हर काम करती कभी भी दादी को कुछ नहीं कहती ।महीना चलता रहता तब उनको और अधिक कष्ट होता। माँ को 15-15 दिनों तक महीना चलता था। उस समय यह सामान्य बात थी। हर काम करते करते मां सारे कामों में निपुण हो गई। लिपना पोतना ,चावल निमारना ,दही मथना, दाल दरना इत्यादि सारे काम एकदम अच्छे से सीख गई ।
मां की तबीयत खराब होने पर उन्हें मायके भेज दिया जाता ।तबीयत ठीक होते ही दादी पापा को मां को लाने के लिए भेज देती ।बीच में अगर मामा कभी मां को लेने आते तो दादी अक्सर मां को नहीं भेजती थी ।इस तरह माँ से हर काम लिया जाता एक तरह से कहूं तो उनका शोषण होता था । पर माँ सब कुछ कर लेती थी।