मेरी माँ का जन्म 1985 में सेमरिया नामक एक छोटे से गाँव में हुई। मेरी माँ के दो बहन और एक भाई भी है ।माँ सबसे बड़ी है। माँ को ही नानी के काम में हाथ बँटानी पड़ती। इसका प्रभाव माँ की पढ़ाई पर पड़ा। माँ रोज स्कूल नहीं जा पाती थी। बस कभी कभी ही जाती थी फिर भी माँ पढाई में काफी तेज थी। माँ तीसरी तक जैसे तैसे पढ़ पाई उसके आगे की पढ़ाई उन्हें छोड़नी पड़ी। माँ नानी के साथ काम करती, भाई बहनो का ख्याल रखती। इस तरह बचपन का आनंद लेने के बजाए उनकी जिंदगी में संघर्ष बचपन से ही शुरू हो गए।
यह बात है 1998 की जब मेरी माँ की शादी बस 12 साल में मेरे पापा जो कि उस समय 15 वर्ष के थे, से हुई। मेरी माँ का नाम मंजू साहू और पिता का नाम बिनेश साहू है। मेरी माँ शादी के बाद भी लगभग 2 साल तक अपने मायके सेमरिया में रही फिर उनकी विदाई हुई तो माँ अपने मायके से ससुराल कड़कड़ा में आ गई। मात्र 14 साल की उम्र में माँ के ऊपर गृहस्थ की सारी जिम्मेदारी आ गई ।
गांव का नाम कड़कड़ा ,न लोग पढ़े लिखे थे और ना ही उतनी जनसंख्या थी एक छोटा सा गांव था ।लोगों की सोच बहुत छोटी थी ।वो एक ऐसा जमाना था जहां कई अत्याचार और शोषण होते रहते थे इसकी चपेट में अक्सर बहुएं और गरीब किसान आते थे। लोगों के घर पर अक्सर लड़ाई झगड़े तथा मार पीट होते रहते थे। पुरुषों के बस एक ही पत्नियां नहीं रहती थी ।उस समय में पत्नी को पैरों की जूती समझा जाता था जब मन चाहे बदल लिया ।इसलिए अगर एक पत्नी पसंद नहीं आई तो उसे छोड़कर दूसरा बना लेते थे वह भी पसंद नहीं आए तो तीसरी। इस तरह 9-10 पत्नियां बना लिया करते। हमारी परदादी परदादा की 9वी नंबर की पत्नी है और दादी दूसरी। एक पत्नी की मौत होने के बाद जल्द ही दूसरी पत्नी बना लेते थे ।उनके प्रति प्रेम अधिक नहीं रहता था। लोगों के पास खेत तो थे लेकिन लगान न चुकाने के कारण दाऊ (साहूकार /जमींदार) खेत अपने नाम चढ़ा लेते थे ।इस तरह सारा खेत उन जमींदारों के अधिकार में आ गया। फसल अच्छी नहीं होती थी और गांव में भुखमरी छा जाती थी ।कौन जिंदा बचेगा और कौन भुखमरी से मर जाएगा इसका कोई भरोसा न रहता था ।लोग 9-10 बच्चे जन्म देते थे यह सोच कर कि अगर तीन-चार बच्चे मर भी गए तो चार-पांच और तो ही बच जाएंगे। खेती ना रहने के कारण लोगों को जमींदारों के घर पर कम मजदूरी पर काम करना पड़ता था। लोगों का जमींदारों द्वारा बहुत अधिक शोषण किया जाता। कुछ कहने पर लोगों को उस दिन की मजदूरी तक नहीं मिलती थी। मजदूरी के रूप में उन्हें रुपए नहीं बल्कि पसिया (मंड) या फिर बचा खुचा बासी खाना दिया जाता था। कई बार उन्हें गेहूँ का चोकर मिलता जिसे वे रोटी बना कर अपना गुजारा चलाते थे।