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श्लोक 16
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ৷৷
हिंदी अनुवाद_
तथा मनकी प्रसन्नता और शान्तभाव एवं भगवत्-चिन्तन करने का स्वभाव, मनका निग्रह और अन्त:करण की पवित्रता ऐसे यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है।
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श्लोक 17
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥
हिंदी अनुवाद_
परंतु हे अर्जुन ! फल को न चाहनेवाले निष्कामी योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से किये हुए उस पूर्वोक्त तीन प्रकार के तप को सात्त्विक कहते हैं।
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श्लोक 18
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ৷৷
हिंदी अनुवाद_
और जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिये अथवा केवल पाखण्ड से ही किया जाता है, वह अनिश्चित ("अनिश्चित फलवाला" उसको कहते है कि जिसका फल होने न होने में शन्का हो।)और क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है।
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श्लोक 19
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ৷৷
हिंदी अनुवाद_
जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है।
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श्लोक 20
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ৷৷20৷৷
हिंदी अनुवाद_
और हे अर्जुन ! दान देना ही कर्तव्य है, ऐसे भाव से जो दान देश, काल (जिस देश, काल में जिस वस्तु का अभाव हो, वही देश, काल उस वस्तु द्वारा प्राणियों की सेवा करने के लिये योग्य समझा जाता है।)
और पात्र को (भूखे, अनाथ, दुःखी, रोगी और असमर्थ तथा भिक्षुक आदि तो अन्न-वस्त्र और ओषधि एवं जिस वस्तु का जिसके पास अभाव हो उस वस्तु द्वारा सेवा करने के लिये योग्य पात्र समझे जाते हैं और श्रेष्ठ आचरणों वाले विद्वान् ब्राह्मणजन धनादि सब प्रकार के पदार्थो द्वारा सेवा करनेके लिये योग्य पात्र समझे जाते हैं।)
प्राप्त होने पर प्रत्युपकार न करनेवाले के लिये दिया जाता है, वह दान तो सात्त्विक कहा गया है।
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श्लोक 21
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ৷৷
हिंदी अनुवाद_
और जो दान क्लेशपूर्वक (जैसे प्रायः वर्तमान समय के चन्दे, आदि में धन दिया जाता है।) तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अर्थात् बदले में अपना सांसारिक कार्य सिद्ध करने की आशा से अथवा फल को उद्देश्य रखकर (अर्थात् मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गादि की प्राप्ति के लिये अथवा रोगादि की निवृत्ति के लिये।) फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है।
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श्लोक 22
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ৷৷
हिंदी अनुवाद_
और जो दान बिना सत्कार किये अथवा तिरस्कारपूर्वक, अयोग्य देश-कालमें, कुपात्रों के लिये अर्थात् मद्य, मांसादि अभक्ष्य वस्तुओं के खानेवालों एवं चोरी, जारी आदि नीच कर्म करनेवालों के लिये दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है।
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श्लोक 23
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ৷৷
हिंदी अनुवाद_
हे अर्जुन ! ॐ, तत्, सत्—ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्मका नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादिक रचे गये हैं।
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श्लोक 24
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम् ৷৷
हिंदी अनुवाद_
इसलिये वेद को कथन करनेवाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा 'ॐ' ऐसे इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं।
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श्लोक 25
तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ৷৷
हिंदी अनुवाद_
तत् अर्थात् तत् नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है, ऐसे इस भाव से फल को न चाहकर, नाना प्रकार की यज्ञ, तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छावाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं।
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श्लोक 26
सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ৷৷
हिंदी अनुवाद_
सत् ऐसे यह परमात्मा का नाम सत्यभाव में और श्रेष्ठभाव में प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्म में भी सत्-शब्द प्रयोग किया जाता है।
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श्लोक 27
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते ৷৷
हिंदी अनुवाद_
तथा यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी सत् है, ऐसे कही जाती है और उस परमात्मा के अर्थ किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत् है, ऐसे कहा जाता है।
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श्लोक 28
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ৷৷
हिंदी अनुवाद_
हे अर्जुन ! बिना श्रद्धा के होमा हुआ हवन तथा दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म है, वह समस्त असत् ऐसे कहा जाता है, इसलिये वह न तो इस लोकमें लाभदायक है और न मरने के पीछे ही लाभदायक है,
इसलिये मनुष्य को चाहिये कि सच्चिदानन्दघन परमात्मा के नाम का निरन्तर चिन्तन करता हुआ निष्कामभाव से, केवल परमेश्वर के लिये, शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्मों का परम श्रद्धा और उत्साह के सहित आचरण करे।
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ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्री कृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय :
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