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Chapter 32 - प्रस्तावना - श्रीमद भगवद गीता

प्रस्तावना - श्रीमद भगवद गीता

हो सकता है इस ब्रम्हांड में कहीं किसी बुक शेल्फ पर कोई संपूर्ण पुस्तक रखी हो | मैं अज्ञात देवताओं से यही प्रार्थना करता हूँ की काश किसी इकलौते आदमी ने हजारों साल पहले उस पुस्तक को पढ लिया हो | यदि उसे पढने का सम्मान उससे मिलने वाला ज्ञान और आनंद मुझे न मिले तो किसी और को मिल सके | भले ही मेरा स्थान नरक में हो पर उस स्वर्ग क अस्तित्व बना रहे| मेरे भाग्य में दुःख यातना और विनाश आये पर सिर्फ एक ही व्यक्ति कम से कम एक ही बार उस पुस्तक के औचित्य को जान ले |

हरि ॐ तत् सत ||

श्रीमदभगवदगीता का पुण्यरूप पाठ करने वाले स्त्री-पुरुषों को चाहिए कि वे इस पावन पाठ को एकाग्र मन से किया करें और इस के सरस सार को समझने में अधिक समय लगायें | इस के प्रत्येक पाठक को उचित है कि वह अपनी ऐसी धारणा बनाये कि मैं अर्जुन हूँ और मुझ में पाप, अपराध, अकर्मण्यता, कर्तव्यहीनता, कायरता और दुर्बलता आदि जो भी दुर्गुण हैं उन को जीतने के लिए श्री कृष्ण भगवान् मुझे ही उपदेश दे रहे हैं | महाराज मेरे ही आत्म की अमर सत्ता को जगा रहे हैं, मेरे ही चैतन्य स्वरूप का वर्णन कर रहे हैं और आलस्य-रहित हो कर, समबुद्धि से स्वकर्तव्य कर्म करने को मुझे ही प्रेरित, उतेजित तथा उत्साहित करने में तत्पर हैं | श्री भगवान् का मैं ही प्रिय शिष्य हूँ, परमप्रिय भक्त हूँ, श्रद्धालु श्रोता हूँ | ऐसे उत्तम विचारों से गीता का पाठक भगवान् कि कृपा का पात्र बन जाता है और उस में गीता का सार सहज से सामने लग जाता है |

भगवान् ने श्रीमुख से स्वयं कहा है कि गीता का पाठ करना और उस को सुनना सुनाना ज्ञान-यज्ञ है, उस से मैं पूजा जाता हूँ | पाठक को चाहिए के वह एक विश्वासी और श्रद्धावान यजमान बन कर बड़े गम्भीर भाव से इस यज्ञ को किया करे और इसको परमेश्वर का पुन्यरूप परम पूजन ही समझे | इस भावना से गीता का ज्ञान, पाठक के ह्रदय में, आप ही आप प्रकाशित होने लग जाया करता है |

श्रीमदभगवदगीता, हिन्दुओं के ज्ञाननिधि में एक महामुल्य चिंतामणि रत्न है, साहित्य-सागर में अमृत-कुम्भ है और विचारों के उधान में कल्पतरु है | सत्य पथ के प्रदर्शित करने के लिए, संसार भर में गीता एक अदवितीय और अद्भुत ज्योति-स्तम्भ है |

श्रीमदभगवदगीता में सांख्य, पातान्जल और वेदांत का समन्वय है | इस में ज्ञान, कर्म और भक्ति कि अपूर्व एकता है, आशावाद का निराला निरूपण है, कर्तव्य कर्म का उच्चतर प्रोत्साहन है और भक्ति-भाव का सर्वोत्तम प्रकार से वर्णन है | श्रीमदभगवदगीता तो आत्म-ज्ञान की गंगा है | इस में पाप, दोष कि धूल को धो डालने के परम पावन उपाय बताये गए हैं | कर्म-धर्म का, बन्ध-मोक्ष का इस में बड़ा उत्तम निर्णय किया गया है | गीता, भगवान् के सारमय, रसीले गीत हैं जिन में उपनिषदों के भावों सहित, भक्ति-भाव भरपूर समाया हुवा है और वेद का मर्म भी आ गया है | श्रीमदभगवदगीता में नारायणी गीता का भी पूरा प्रतिबिम्ब विधमान हैं | इस का अपना मौलिकपन भी महामधुर और मनो-मोहक है | संक्षेप से कहा जाय तो यह सत्य है कि भगवान् श्री कृष्ण ने ज्ञान के सागर को गीता-गागर में पूर्ण-रूप में भर दिया है |

श्रीमदभगवदगीता में कर्मयोग की बड़ी महिमा है | कर्मों के फलों में आशा न लगा कर कर्तव्य-बुद्धि से कर्म करना कर्मयोग है | कर्तव्यों को करते हुए मोह में, ममता में तथा लालसा आदि में मग्न न हो जाना अनासक्ति है | अपने सारे कर्मों को, अपने ज्ञान-विज्ञान, तर्क-वितर्क और मतासहित, मन, वचन, काया से श्री भगवान् की शरण में समर्पण कर देना, कर्तापन काया अभिमान न करना और अपने आप सहित कर्ममात्र को विधाता की भक्ति की वेदी पर बलि बना देना भक्तिमय कर्मयोग है; यही सच्चा संन्यास है | श्री कृष्ण के समय में लोग ज्ञान और संन्यास को मतरूप से मानते थे और कर्म की निंदा किया करते थे | इस लिए श्री महाराज ने कर्तव्य-पालन पर अधिक बल दिया है और कर्मत्याग का निषेध किया है |

श्री कृष्ण भगवान् के श्रीमदभगवदगीता गीत बड़े सरल, अतिशय सुन्दर, बहुत ही बलाढय, अतीव सार-गर्भित और अत्यन्त उत्तम हैं | उन में सत्य का और तत्वज्ञान का निरुपण अत्युत्तम प्रकार से किया गया है | उन के श्रवण, पठन, मनन और निश्चय करने से मनुष्य का अंतरात्मा अवश्य्मेव जग जाता है, उस के चिदाकाश में सत्य के सुर्य का प्रकाश अवश्य ही चमक उठता है और उस का परम कल्याण होने में संदेह तक नहीं रह जाता | गीता के उपदेशामृत को भावना-सहित पान कर लेने से भगवदभक्त को परमेश्वर का परम धाम आप ही आप सुगमता से प्राप्त हो जाता है | श्रीमदभगवदगीता का यह माहात्म्य महत्वपूर्ण है कि इस को जीवन में बसाने से और कर्मो मे ले आने से मनुष्य का व्यक्ति-गत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन उन्नत हो कर उस का यह लोक सुधर जाता है और साथ ही आत्मा-परमात्मा का शुद्ध बोध हो जाने से उस की जन्म-बन्ध से मुक्ति भी हो जाती है |

एक-दूसरे के प्राणों के प्यासे कौरवों और पांडवों के बीच महाभारत शुरू होने से पहले योगिराज भगवान श्रीकृष्ण ने अट्ठारह अक्षौहिणी सेना के बीच मोह में फंसे और कर्म से विमुख अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को छंद रूप में यानी गाकर उपदेश दिया, इसलिए इसे गीता कहते हैं। चूंकि उपदेश देने वाले स्वयं भगवान थे, अत: इस ग्रंथ का नाम भगवद्गीता पड़ा।

हिन्दू धर्म ग्रंथ श्रीमदभगवद्गीता में ईश्वर के विराट स्वरूप का वर्णन है। महाप्रतापी अर्जुन को इस दिव्य स्वरूप के दर्शन कराकर कर्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग के महामंत्र द्वारा अर्जुन के साथ संसार के लिए भी सफल जीवन का रहस्य उजागर किया।

भगवान का विराट स्वरूप ज्ञान शक्ति और ईश्वर की प्रकृति के कण-कण में बसे ईश्वर की महिमा ही बताता है। माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन, नर-नारायण के अवतार थे और महायोगी, साधक या भक्त ही इस दिव्य स्वरूप के दर्शन पा सकता है। किंतु गीता में लिखी एक बात साफ करती है साधारण इंसान भी भगवान की विराट स्वरूप के दर्शन कर सभी पापों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त हो सकता है। जानते हैं वह विशेष बात -

श्रीमद्भगवद्गीता के पहले अध्याय में ही देवी लक्ष्मी द्वारा भगवान विष्णु के सामने यह संदेह किया जाता है कि आपका स्वरूप मन-वाणी की पहुंच से दूर है तो गीता कैसे आपके दर्शन कराती है? तब जगत पालक श्री हरि विष्णु गीता में अपने स्वरूप को उजागर करते हैं, जिसके मुताबिक -

पहले पांच अध्याय मेरे पांच मुख, उसके बाद दस अध्याय दस भुजाएं, अगला एक अध्याय पेट और अंतिम दो अध्याय श्रीहरि के चरणकमल हैं।

इस तरह गीता के अट्ठारह अध्याय भगवान की ही ज्ञानस्वरूप मूर्ति है, जो पढ़ , समझ और अपनाने से पापों का नाश कर देती है। इस संबंध में लिखा भी गया है कि बुद्धिमान इंसान हर रोज अगर गीता के अध्याय या श्लोक के एक, आधा या चौथे हिस्से का भी पाठ करता है, तो उसके सभी पापों का नाश हो जाता है।

भगवद्गीता में कई विद्याओं का उल्लेख आया है, जिनमें चार प्रमुख हैं - अभय विद्या, साम्य विद्या, ईश्वर विद्या और ब्रह्मा विद्या।

माना गया है कि अभय विद्या मृत्यु के भय को दूर करती है। साम्य विद्या राग-द्वेष से छुटकारा दिलाकर जीव में समत्व भाव पैदा करती है। ईश्वर विद्या के प्रभाव से साधक अहं और गर्व के विकार से बचता है। ब्रह्मा विद्या से अंतरात्मा में ब्रह्मा भाव को जागता है। गीता माहात्म्य पर श्रीकृष्ण ने पद्म पुराण में कहा है कि भवबंधन से मुक्ति के लिए गीता अकेले ही पर्याप्त ग्रंथ है। गीता का उद्देश्य ईश्वर का ज्ञान होना माना गया है।

श्रीमदभगवदगीता

श्रीमदभगवदगीता

गीताजी का पाठ आरंभ करने की विधि

गीता माहात्म्यं

गीता अध्याय

श्रीमद भगवद गीता

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गीताजी का पाठ आरंभ करने की विधि

कल्याण की इच्छा वाले मनुष्यों को उचित है कि मोह का त्याग कर अतिशय श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपने बच्चों को अर्थ और भाव के साथ श्रीगीताजी का अध्ययन कराएँ।

स्वयं भी इसका पठन और मनन करते हुए भगवान की आज्ञानुसार साधन करने में समर्थ हो जाएँ क्योंकि अतिदुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर अपने अमूल्य समय का एक क्षण भी दु:खमूलक क्षणभंगुर भोगों के भोगने में नष्ट करना उचित नहीं है।

गीताजी का पाठ आरंभ करने से पूर्व निम्न श्लोक को भावार्थ सहित पढ़कर श्रीहरिविष्णु का ध्यान करें--

अथ ध्यानम्

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्यनाभं सुरेशं

विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं

वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।

भावार्थ : जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शैया पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो ‍देवताओं के भी ईश्वर और संपूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीलमेघ के समान जिनका वर्ण है, अतिशय सुंदर जिनके संपूर्ण अंग हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो संपूर्ण लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनेत्र भगवान श्रीविष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुन्वन्ति दिव्यै: स्तवै-

र्वेदै: साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:।

ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो-

यस्तानं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:।।

भावार्थ : ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्‍गण दिव्य स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गाने वाले अंग, पद, क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते हैं, योगीजन ध्यान में स्थित तद्‍गत हुए मन से जिनका दर्शन करते हैं, देवता और असुर गण (कोई भी) जिनके अन्त को नहीं जानते, उन (परमपुरुष नारायण) देव के लिए मेरा नमस्कार है।

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