अगले दिन।
सुबह पाँच बजे से अपनी दिनचर्या शुरू हुई। तड़के–तड़के उठकर सुबह का व्यायाम, नहा-धोकर बेटे को स्कूल पहुँचाना, फिर खुद नाश्ता करके फैक्टरी के लिए निकलना।
फैक्टरी में काम का दबाव होने की वजह से कब सुबह से दोपहर हो गया, पता ही न चला। लंच टाइम हो चुका था और मेरे सहकर्मियों ने मुझे खाना खा लेने को कहा।
फिर आपस में बतियाते हुए हमलोग अपना खाना खत्म करने लगे। बातचीत के क्रम में सामने वाले की अँगूठी देख बीती रात की सारी घटना आँखों के सामने तैरने लगी, जिसकी चर्चा मैने अपने साथियों से भी की।
फिर क्या था! सबको खिंचाई करने का जैसे बहाना ही मिल गया हो – तुम इतने स्मार्ट हो ही। तुमसे सगाई करना चाहती होगी। गिफ्ट समझ कर रख लेते, आदि तरह-तरह की बातें।
जल्दी-जल्दी अपना खाना खत्म कर मै वहाँ से खिसका और अपने काम मे लीन हो गया।
पर मन में सहकर्मियों की कही उलजलूल बातें चल रही थी। यही नहीं, वो बातें सही प्रतीत होने की गलतफहमी भी हो रही थी कि कहीं सच में मैं उसे पसंद तो नहीं आ गया! इसलिए उसने अपनी अंगूठी मेरे तरफ बढ़ाई होगी। और.... मैं अपने काम मे व्यस्त हो गया।
दैनिक उत्पादन का दबाव ज्यादा होने के कारण आज भी रात के बारह बज गए।
पर आज साथ में एक सहकर्मी भी था, जो घर वापसी में मेरे साथ साथ हो लिया।
थोड़ी दूर तक साथ चलने के बाद वो अपने घर के लिए दूसरी तरफ मूड़ गया और मेरे सामने फिर से वही संकरी गली थी।
मैं उधेड़बून में था कि क्या करूँ, क्या न करूँ! पता नहीं क्यूं, पर फिर से उसी गली मे घुस गया जैसे कोई मुझे बुला रहा हो या मै खुद से जाना चाहता था!
हाथ में टिफिन बॉक्स लिए मेरे उत्सुक क़दम आगे बढ़े जा रहे थे।
पर आज एक बात बड़ी अजीब थी। गली में एक भी कुत्ते नहीं दिख रहे थे। कहाँ गए सब? एक दिन में इतने परिचित हो गए ये बेज़ुबान जानवर मुझसे!
मस्ज़िद वाली मोड़ से घूमा और थोड़ा आगे बढ़ा ही था कि तभी पीछे से आवाज़ आयी– "ज़नाब, जरा ठहरिए।"
मैं ठिठक कर रुका।
पलटकर देखा तो लहराते हुए सुनहरे बालों वाली यह वही स्त्री थी, जो पिछली रात मिली थी।
ललाट पर एक लंबी-सी बिंदी लगाए और चेहरे पर तेज़ लिए काली साड़ी में वह मस्जिद के पास खड़ी मुस्कुरा रही थी।
इतने अंधेरे में भी एक अज़ीब-सा प्रकाश था उसके चारो तरफ और चेहरे पर अजीब-सा आकर्षण।
"आज भी आपकी मदद चाहिए मुझे। मिलेगी?"– उस स्त्री ने पहेली भरी मुस्कान के साथ पुछा।
मैं हाँ बोलूं या ना – कुछ समझ मे नहीं आया। फिर भी, हामी मे सिर हिला दिया और वह मेरे साथ चल पड़ी।
आज चुप नहीं थी वह। बोले ही जा रही थी, जैसे मेरे आने का ही इंतज़ार कर रही हो कि क्या-क्या बताना है, क्या पुछना है – मानो उसने सबकुछ पहले से ही सोच रखा हो।
मैं कौन हूँ, कहाँ रहता हूँ, घर पर कौन-कौन हैं, मेरी पसंद–नापसंद, वगैरह–वगैरह टाइप के सवालो के तीर एक-एक करके वो मेरी तरफ चलाती जा रही थी।
उसके न खत्म होने वाले सवालों की पोटली को भरते हुए मैं क़दम से क़दम मिलाए आगे बढ़ा जा रहा था।
"इतनी रात गए अकेली घर से बाहर निकलती हो। किसी को साथ लेकर निकलना चाहिए।"- मैने उस स्त्री से कहा। फिर उसकी तरफ देख उससे सवाल किया- "आप कहाँ रहती हो? घर पर कौन कौन है?"
उसने हँसकर केवल यही कहा कि क्या करिएगा जानकर! बस जब मिलना हो, इसी वक़्त इस गली से गुजरना मैं दिख जाऊँगी और ठहाके लगाकर हँसने लगी। इस तरह के जवाब की मैने कल्पना भी न की थी। ऐसा सुनकर मुझे बड़ा ही अजीब लग रहा था। बातें करते हुए हम दोनों आगे बढ़ते रहे।
तभी उसने अपने कांधे पर लटकाए थैले में हाथ डालकर कुछ निकाला। अपनी मुठ्ठी में उसने कुछ छिपा रखा था। कुछ तो था उसमें – क्या? पता नहीं! उसकी इस हरक़त को मैं समझ नहीं पाया।
और तभी उसने मुझसे मेरा हाथ आगे बढ़ाने को कहा। उसकी बंद मुट्ठी की तरफ देख मैंने प्रश्न किया – "क्या है इसमे?" मुस्कुराकर वह मुझसे मेरा हाथ आगे करने का ज़िद्द करती रही।
जब उसने अपनी बंद मुट्ठी न खोली तो मैने भी साफ-साफ इंकार करते हुए कहा- "हमलोग कितना जानते हैं एक-दूसरे को? और ऐसे ही किसी अंजान से बंद मुट्ठी से मैं तो कुछ ना लूँ।"
जब मैं नहीं माना, तो अंततः उसने अपनी मुट्ठी खोली। उसकी हथेली में वही चमकती हुई अंगूठी थी, जिसे पिछली रात मुझे पहनाने का असफल प्रयास किया था।...