"तुम्हारी मुलाक़ात एक ज़िन्न से हुई थी।" – पुरोहित जी ने बताया, जिसके बाद थोड़ी देर तक वहाँ सन्नाटा पसरा रहा।
"गली का आखिरी छोर ही उसका अंतिम दायरा था। इसीलिए वह उससे आगे नहीं बढ़ पायी। हवा में फैली वो भीनी खुशबू या अचानक से ठंड का वो एहसास और कुछ नही, उस ज़िन्न की उपस्थिति का प्रमाण था। अपनी अँगूठी के माध्यम से वह तुम्हें उस पारलौकिक दुनिया में लेकर जाना चाहती थी। अगर भूल से भी तुमने वह अँगूठी पहन ली होती, तो बड़ा अनिष्ट हो जाता।" – पुरोहित जी ने गम्भीर होते हुए बताया।
उनकी बातें सुन मैं भीतर तक काँप उठा था। निर्मला ने मेरा हाथ थामकर मुझे शांत किया।
पुरोहित जी ने बताया- "अब भयभीत होने वाली कोई बात नहीं, खतरा टल गया है। पर हाँ...एक बात का हमेशा ध्यान रहे कि चाहे कुछ भी हो जाए, रात्रि मे भूलकर भी उस गली में क़दम मत रखना। अभी तक उस ज़िन्न ने तुम्हें अपनी सुंदरता और प्यार के आकर्षण से मात्र अँगूठी के सहारे अपने साथ ले जाने की प्रयास किया। बड़े खुशकिस्मत निकले कि तुम उस गली के आखिरी छोर यानि जहां उसका दायरा खत्म होता है, वहाँ पहुँच गए। इसीलिए वह कुछ न कर पाया और उसे खाली हाथ लौटना पड़ा।"
पुरोहित जी की बातों पर मैने उन्हे टोककर पुछा– "पर पुरोहित जी, उस गली में तो इतने सारे लोग रहते हैं! उन सबका क्या?"
प्रश्न सुनकर पुरोहित जी मुस्कुराए और मेरी तरफ देखते हुए कहा– "अच्छा ये बताओ, क्या तुमने उस गली में उस स्त्री के सिवाय किसी इंसान को देखा था?" फिर अपने प्रश्न का जवाब खुद ही देते हुए उन्होने कहा- "नहीं न! पता है क्यों? क्योंकि उस गली में रहने वाले लोगों को इस बात की जानकारी पहले से ही है, जिसकी वजह से रात्रि में कोई नहीं निकलता सिवाय कुत्तो के।"
पुरोहित जी को बीच में ही रोकते हुए मैने कौतुहलवश उनसे प्रश्न किया– "पुरोहित जी, एक बात मुझे बड़ी अजीब लगी। पहले दिन जब मैने उस गली में प्रवेश किया तो ढेर सारे कुत्ते मुझपर भौंक रहे थे। पर अगले दिन जब मैं फिर से उस गली में घुसा तो कुत्तों का नामोनिशान भी न था। तो क्या वो सब उस स्त्री का भ्रमजाल.....!" कहते-कहते मैं चुप हो गया।
"तुमने सही समझा। वह उस स्त्री यानी ज़िन्न का भ्रमजाल ही था। ज़िन्न बहुत शक्तिशाली होते हैं। वह किसी पर भी अपना प्रभाव आसानी से छोड़ सकते हैं और बडी आसानी से किसी को भी अपने वश में कर सकते हैं। तुम भाग्यशाली हो कि उसके चंगुल से बच निकले।"- पुरोहित जी ने बताया।
"और हो सके तो कुछ दिन के लिए अपनी शिफ्ट ड्यूटी सुबह की लगवा लो ताकि शाम होने से पहले ही घर लौट सको।" – पुरोहित जी ने हिदायत देते हुए कहा।
फिर पुरोहित जी ने अपने थैले में हाथ डालकर कुछ निकाला। पर इसबार वह अंगुठी नहीं थी! एक ताबीज़ थी। उसपर मंत्र फुंककर उन्होने उसे मेरी तरफ बढ़ाया। इसबार मैने उन्हे मना नहीं किया, बल्कि अपनी बांह आगे बढ़ा दी। उन्होने मंत्रोच्चारण के साथ उस ताबीज़ को मेरी बाजू पर बांधते हुए कहा- "इसे हमेशा बांधे रखना। यह तुम्हारी रक्षा करेगा। चाहे कुछ भी हो जाए, उतारना मत।"
फिर हम पति-पत्नी को सदा सुखी रहने का आशीर्वाद देकर पुरोहित जी चले गए।
मैं ठहरा पढ़ा-लिखा और ऊपर से शहर में रहने वाला इंसान। ज़िन्न या भूत-प्रेत जैसी बातों पर मैने आजतक कभी यक़ीन नहीं किया। जैसा कि मैंने गली में मिली उस स्त्री या तथाकथित ज़िन्न को भी बताया था कि किसी भी दक़ियानूसी बातों पर मैं यकीन नहीं करता।
मेरा दिमाग पुरोहित जी के द्वारा कही बातों पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहा था। पर उस गली में मैंने जो भी अनुभव किया, उसे सामान्य भी तो नहीं कहा जा सकता!
परिदृश्य को देखने के नजरिया हर किसी का अलग-अलग होता है। हर इंसान अपने हिसाब से परिस्थिति का आंकलन करता है। यह जरूरी भी नहीं कि वह आंकलन हर बार सच्चाई से मेल खाता ही हो। अब क्या सच है और क्या झूठ?– यह न तो मैं जानता था और न ही पुरोहित जी। यह तो सिर्फ इश्वर को ही पता था या फिर उस स्त्री को!
पर एक बात तो था। पुरोहित जी के तर्क भरे उत्तर से उस गली में घटी सिलसिलेवार घटनाओं और उस स्त्री के बारे में मेरे मन-मस्तिष्क में उठते ढेरों सवालों पर अब विराम लग चुका था।
हालांकि पुरोहित जी की बातें सुन मैं बहुत डरा हुआ था, जिसकी वज़ह से भूलकर भी अब उस गली में जाने की मेरी हिम्मत न थी।
आज। उस घटना के करीब दस साल होने को हैं। उस गली के पास से मैं अनेकों बार गुजरता हूँ। पर आज भी भीतर जाने की हिम्मत नहीं होती।
मन-मस्तिष्क में बस यही एक सवाल घूमता है कि सच में "वह स्त्री थी या ज़िन्न?"
ll समाप्त ll