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Chapter 5 - EPISODE 04

...जब मैं नहीं माना, तो अंततः उसने अपनी मुट्ठी खोली। उसकी हथेली में वही चमकती हुई अंगूठी थी, जिसे पिछली रात मुझे पहनाने का असफल प्रयास किया था।

मैंने उसे समझाया कि अगर आप दिन में यह देतीं तो मैं शायद लेने के लिए सोचता भी। पर इतनी रात गए और ऊपर से यह अंगूठी देखने में ही बहुत कीमती लगती है। इसलिए आप मुझे माफ करें, मैं इसे बिल्कुल भी नहीं ले सकता।

मेरा ना में जवाब सुनकर उस स्त्री की आँखें तंज़ हो गयी। अजीब तरीके से घूरती हुई निगाहों से मेरी तरफ देखते हुए उसने कहा कि मैं आपकी पूरी ज़िंदगी खुशहाल बनाना चाहती हूँ और आप हो कि अपनी अभावपूर्ण ज़िंदगी से बाहर निकलना ही नहीं चाह रहे।

"आप इस अंगूठी को एकबार पहनकर तो देखो, आपको एक नई और बिलकुल अलग ही दुनिया दिखेगी सारे दुख-तकलीफ़ों से ऊपर।" - अपनी तीखी होती आवाज़ से उसने कहा। 

पर मैं अपनी ही बातों पर अडिग रहा और उसकी एक भी बात सुनने या मानने को तैयार न हुआ। ऐसे करते-करते हम दोनों गली के आखिरी छोर पर पहुँच गए।

अचानक वह स्त्री बिलकुल एक जगह स्थिर हो गई। पर मुझे आगे बढ़ते रहने को कह खुद वापस अपने घर लौटने के लिए मुड़ी।

"क्या हुआ? आप वापस क्यूँ जा रही हैं?"– मैंने प्रश्न किया। मेरे प्रश्न का बिना कोई उत्तर दिए वह लौटने लगी।

उसका ऐसा रवैया मुझे बड़ा ही विचित्र लगा कि जब उसे कहीं जाना ही न था तो आखिर क्यूँ आयी मेरे साथ गली के इस छोर तक?

हाँ, लौटते वक़्त मुझे केवल एक बात कह गयी कि जब कभी मिलना हो या यह अंगूठी चाहिए तो इस गली से गुजरना, मैं आपको मिल जाऊँगी।

मैं कुछ न बोला और तेजी से उस गली से बाहर निकल मुख्य मार्ग पर आ गया।

बाहर स्ट्रीट लाइट की दूधिया रोशनी से समूचा सड़क नहाया हुया था। रात के सन्नाटे में उस सड़क पर इक्का-दुक्का लोग ही आते-जाते दिख रहे थें।

पर मैं अब थोड़ा राहत महसूस करने लगा था। जो कुछ भी अभी घटित हुआ, उसे लेकर मन में सौ सवाल भी उठ रहे थें।

उस स्त्री ने ऐसा क्यूँ किया! आखिर ऐसा क्या था उस अंगूठी में, जो मुझे पहनाने को वह इतनी आतूर थी! आखिर हर बार वह गली के आखिरी छोर तक आकर वापस क्यूँ लौट जाती रही!- यही सब सोचते-विचारते कब घर के दरवाजे पर आ पहुँचा, पता ही न चला।

पर आज फिर से मुझे तेज़ बुखार था। निर्मला से दवाई मांगी और खाकर बिछावन पर लेट गया।

निर्मला ने खाने के लिए आवाज लगाया तो मैंने मना कर दिया। वह सिराहने आकर बैठी और सिर को छूते हुए मुझसे पूछा– "दो दिनों से आपकी तबीयत ठीक नहीं लग रही। कल चलकर डॉक्टर से दिखा लिजिए।" मैने कुछ कहा तो नहीं, केवल हाँ में सिर हिला दिया। मुझे थका हुआ देख उसने भी मुझसे ज्यादा कुछ न पुछा।

अगली सुबह उठा तो मेरा सिर भारी था। इसलिए बिछावन पर ही लेटा रह गया। बच्चों को आज स्कूल भी नहीं पहुंचा पाया। निर्मला को ही उन्हे स्कूल छोड़ने जाना पड़ा।

फिर फटाफट रसोई के काम निपटाकर वह मेरे पास आकर बैठी और मुझसे पुछा- "कुछ बात है क्या! इतना चिंतित क्यूँ लग रहे हैं? पिछली दो रातों से आपको परेशान देख रही हूँ।"

तब मैने बीते दो रातों से गली में घट रही सारी घटनाओं के बारे में उसे बताया। मेरी बातें सुन निर्मला गम्भीर होती दिखी। फिर अपनी गम्भीरता को भीतर ही छिपाते हुए मुझे चिंता न करने को कहा और अपने गृह कार्य मे तल्लीन हो गयी। मैं भी अपनी आँखें मूँद बिछावन पर ही लेटा रहा।

थोड़ी देर बाद निर्मला ने आवाज लगाते हुए कहा –"नहा-धोकर तैयार हो जाइए, घर पर किसी को बुलाया है।" 

"किसे?"- मेरे पुछने पर उधर से आवाज आयी – "जब आएंगे तो खुद देख लेना।"

एक घंटे बाद दरवाजे पर पुरोहित जी की दस्तक हुई। चरणस्पर्श कर उन्हे आदरपूर्वक घर के भीतर बैठने को आसन दिया। मैने गौर किया कि पुरोहित जी की नज़र मुझपर ही टिकी थी। वह बड़े ध्यान से मुझे घूर रहे थें।

पहले तो निर्मला ने पुरोहित जी को जलपान कराया, फिर मेरी तरफ देख इशारे से उन्हे कुछ बताने की कोशिश की। पर पुरोहित जी ने हाथ दिखाकर निर्मला को शांत रहने का इशारा किया और मेरे सिर पर हाथ रख अपनी आँखें मूंद ली। फिर पिछली दो रातों से मेरे साथ घटित सारी बातों के बारे में विस्तार से पूछा।

मैंने भी बाल के खाल की तह तक जाकर उन्हे सारी बातें बतायी। पुरोहित जी के चेहरे पर तनाव मैं साफ–साफ देख सकता था। उन्होने अपने थैले से थोड़ा-सा भभूत निकाला और मेरे ललाट पर मल दिया। वहीं बैठी निर्मला यह सब बहुत ध्यान से देख रही थी।

"तुम्हारी मुलाक़ात एक ज़िन्न से हुई थी।" – पुरोहित जी ने बताया, जिसके बाद थोड़ी देर तक वहाँ सन्नाटा पसरा रहा।...