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Dipti

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Chapter 1 - श्मशान का दर्द.....पार्ट - 1

गहरी काली रात थी,सायं सायं हवा बह रही थी। मैं नंदू अपने दुकान में बैठे आख़िरी ग्राहक से बातें कर रहा था, उसके जाने के बाद मैं फ़िर यहाँ अकेला रह जाऊंगा। श्मशान की इस मिट्टी में लोग ग़लती से भी आना नहीं चाहते, पर मुझे तो इसी मिट्टी के बदौलत जिंदगी मिलती है। और सिर्फ़ मुझे ही नहीं मेरे पूरे परिवार को। इस श्मशान के सन्नाटे के बीच मेरी एक दुकान है। यहां अपने परिजनों, और दोस्तों को जलाने आये लोगों के लिए मैं सिगरेट,चाय,पेट भरने लायक़ भोजन और छुप छुपकर दारू की भी व्यवस्था करता हूं।

इस पूरे श्मशान में एक मेरी ही एकलौती दुकान है। दिन में तो लोग आते जाते रहते हैं, पर रात में यहां सन्नाटा फ़ैल जाता है। मैं भी पहले रात के वक़्त घर चला जाता था, पर पिछले साल रात में आकर कोई मेरे दुकान से सारी चीजें चुराकर ले भागा। तब से मैं दिन रात यहीं पड़ा रहता हूं।

मेरे तीन बेटे हैं, तीनों ही पहले दर्जे के आवारे और निकम्मे। मेरी एक बेटी भी है, सबसे छोटी है। पर सब से होशियार भी है। वहीं मेरे लिए खाना ले आती हैं। आज शाम ही एक लाश यहाँ जलायी गयी है। दूर से ही मैं जलती हुयी चिता की लो देख पा रहा था। हवा दिशा बदल बदल कर चल रही थी इसलिए आग भी हवा में फड़फड़ा रही थी। गांव वाले लोग मुझे काफ़ी हिम्मती समझते हैं, पर सिर्फ़ मैं ही जानता हूँ, रात के वक़्त श्मशान कैसे अपना रूप बदल लेता है।

दूर वीरान पड़े मैदान की झाड़ियों के पीछे से सियारों की आवाज़ आती हैं। मेरे रौंगटे खड़े हो जाते हैं। उसी वक़्त कुछ जंगली कुत्ते भौंकते है, और मेरे दुकान के आगे बनी छावनी की तिरपाल हवा में उड़कर फड़फड़ाने लगती है। मैं डर कर दुकान के अंदर चला जाता हूँ। और लकड़ी के बने दरवाजे को बड़ी सावधानी से बग़ैर आवाज़ किये बन्द कर देता हूँ। दरवाज़े के पास बैठकर में उसमें बने छोटे से छेद से बाहर की ओर देखता हूँ। और मुझे दिखाई देती हैं, जल रही लाश की आग जो हवा में लहरा रही होती है। और मेरे मन मस्तिष्क में तरह तरह के चित्र बनते हैं,उस उड़ती हुई आग में। मैं सहम जाता हूँ, इच्छा होती हैं उसी वक़्त गांव की तरफ़ दौड़ पडूँ।

पर बाहर फैली मनहूसियत मुझे भीतर तक डरा देती है। रह रह कर कुत्ते रुदन करते है। कभी कभी तो कोई जानवर आकर मेरे दरवाज़े पर अपना शरीर रगड़ता है। अभी दो दिन पहले की ही बात है, सुबह उठकर जब मैं दरवाज़े से बाहर निकला तो मेरे पैरों के नीचे किसी का अधजला हाथ आ गया। मैं जली हुयी उंगलियां साफ़ देख पा रहा था।

ख़ैर ये सब तो मैं पिछले 10 सालों से झेल रहा हूँ। अब तो ये शमशान मुझे अपना सा लगता है। डराता जरूर है, पर पेट भी तो यही भरता है। इन दस सालों में एक बार भी मेरी मुलाकात किसी रूह से नहीं हुयी। पर ये सिलसिला ज़्यादा नहीं चल पाया।

घनघोर बरसात की रात थी ये, मैं शाम से ही अपने दुकान के अंदर था। जब तक रौशनी रही इक्का दुक्का लोग आते, कोई सिगरेट और कोई गुटखा पान लेकर ही चल जाते। धंधा बड़ा मंदा हो गया था। और ये अब पूरे बरसात भर होने वाला है। क्योंकि बरसात के दिनों में मरने वाले के साथ कम ही लोग आते है। और जो आते भी वे जल्द ही निकल जाते। शमशान घाट में ठहरने की कोई जगह भी तो नहीं है। एक मेरी दुकान तो है, पर इसमें से भी अब कई जगहों पर पानी टपकता है।

रात के ग्यारह बज रहे थे। टीन की छत पर जब बरसात का पानी पड़ता, तो अपने आप ही एक भयंकर आवाज़ उतपन्न होती। इस आवाज़ में कोई सो तो नहीं सकता। मैं रेडियो पर जगदीश सिंह जी के गाने सुन रहा था। बारिश थोड़ी हल्की होती तो बाहर से झींगुरों की आवाज़ तेज हो जाती। और मेढकों ने तो मेरे दुकान के आस पास ही अड्डा जमाया हुआ था, सुबह हो या रात इनकी टर्र टर्र लगी ही रहती। मैं गानों में खोया हुआ था, और बारिश के रुकने का इंतजार कर रहा था।

उसी वक़्त दरवाज़े पर आहट हुयी,और मैं चौक गया। इतनी रात में कौन ग्राहक हो सकता है। अभी 3 घंटे पहले ही तो आख़िरी लाश जलाकर उसके घरवाले जा चुके थे। फ़िर अब कौन आ गया...? दरवाज़ा खोलूं या नहीं इसी उधेड़बुन में फंसा हुआ था कि एक और बार दरवाज़ा खटखटाया गया। और उधर से आवाज़ आयी।

" दरवाज़ा खोलो काका"..... आवाज़ तो किसी छोटी सी बच्ची की थी। मैंने झट से दरवाज़ा खोल दिया, तो सामने एक सात या आठ साल की गुड़िया खड़ी थी। उसने एक गुलाबी रंग की फ्रॉक पहनी हुई थी। जो कि पूरी तरह से भींग चुका था। उसके कंधे तक घुंघराले बाल थे, जिनमें से पानी टपक कर मेरे दुकान के द्वार की मिट्टी को गिला कर रहे थे।

मेरे दरवाज़े के खोलते ही उसने बड़े उदास आवाज़ में कहा, "काका वो जो लाश यहाँ थोड़ी देर पहले आयी थी न, बारिश के वजह उसकी आग बुझ गयी है। आप जला दीजिये न चलकर।"

मन में बहुत से सवाल तो थे, पर पता नहीं क्यों मैं उस से कुछ बोल नहीं पाया। उसके चेहरे के दर्द ने मुझे मजबूर कर दिया, और मैं सीधे दुकान से केरोसिन तेल निकालकर उसके पीछे पीछे चलने लगा। नन्हें क़दमो से वो मुझे शमशान के अंदर ले जाती रही, जहां आग तो बुझ गयी थी पर धुंआ अब भी उठ रहा था। बारिश भी अब बंद हो चुकी थी। अधजले लाश की बदबू मेरे बर्दाश्त से बाहर हो रही थी। मैंने जल्दी से लाश पर केरोसिन तेल डालकर माचीस मार दी। धु धु कर लाश फ़िर जल उठी।

और इसके साथ ही मुझे मेरे पीछे से किसी के रोने की आवाज़ आयी। मुझे लगा शायद वही गुड़िया रो रही थी, पर जैसे ही मैं पीछे मुड़ा तो वहां कोई नहीं था। वो बच्ची भी नहीं, जिसके पीछे पीछे आकर ही मैंने इस बुझ चुकी लाश को दुबारा जलाया था।

मुझे नहीं समझ आया अचानक वो बच्ची कहा गायब हो गयी। थोड़ी देर उसे इधर उधर ढूंढने के बाद मैं वापस अपने दुकान में आ गया और सो गया। मन के भीतर कही से आवाज़ तो आ रही थी कि अभी अभी मैं जिस बच्ची के साथ था, क्या वो इंसान थी? मैं अंदर से डर रहा था। और अपने आप से वादा कर रहा था की अब चाहे जो भी हो कभी रात में दरवाजा नहीं खोलूंगा।

सुबह के ठीक छह बजे होंगे मैं हाथ मुँह धोकर दुकान में चाय बना रहा था। उसी वक़्त तीन हट्टे कट्टे लोग मेरी दुकान पर आकर बैठ गए। और मुझसे बोले कि कल रात जो लाश वे लोग लेकर आये थे जलाने, उसी की अस्थियां लेने आये हैं आज ये लोग।

तभी मुझे याद आयी वो बच्ची, और मैंने उन लोगों से कहा "भैया कल रात यहाँ आप मे से बच्ची को लेकर कौन आया था? बच्ची मेरे दुकान में आई थी रात में, और आप लोगों की लाश जो तेज़ बारिश के वजह से बुझ चुकी थी,तो मुझे दुबारा जला देने के लिए बोलने लगी। मैंने उसके साथ जाकर दुबारा लाश को आग लगा दी। पर उसी वक़्त वो अचानक कही चली गयी, पता नहीं कहा? मुझे लगा शायद जिसके साथ वो आयी थी उसी के पास चली गयी होगी।

मेरे इतना कहने के बाद वो लोग मुँह फाडे एक दूसरे को देखने लगे। और फ़िर उनमें से किसी एक ने अपने जेब से मोबाइल निकाला और मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए एक तस्वीर दिखाई। "अरे हा ये तो वही गुड़िया है। वही घुंघराले बाल, यही चेहरे की मासूमियत, वही कद, वही रंग।"

मेरे बच्ची को पहचान लेने के बाद वे लोग बहुत अचरज में पड़ गए। और मुझसे बोले "नंदू जी आप ये क्या बोल रहे हैं?? कल रात हम सब इसी बच्ची को तो जलाने आये थे, कल ही इसकी हत्या रहस्यमय तरीके से हुयी है। पुलिस अभी छानबीन कर रही हैं। भगवान के लिए ऐसा झूठ मत बोलिये। हम तीनों में से एक उस बच्ची के पिता भी है"।

मुझे काटो तो खून नहीं जिसका अनुमान लगाया वही हुआ। मैंने कांपते होठों से कहा "भैया मैं झूठ क्यों बोलूंगा??? कल यही आयी थी दुकान में"।

मेरी बातों को अनसुना कर वे लोग बच्ची के पिता के आंसू पोछते हुए चले गए। और मैं वही बैठकर कंधे में पड़े गमछे से अपने पसीने पोछने लगा। फूल सी बच्ची की मौत वो भी रहस्यमय तरीके से....? ये बात सोचने पर मजबूर कर रही थी। मैंने अपने दोनों हाथ जोड़कर ईश्वर से प्रार्थना की " हे मां दुर्गा नन्हीं सी बच्ची की आत्मा को शांति देना। और उसके कातिलों को सज़ा भी"। लेकिन मैं उस वक़्त नहीं जानता था कि मेरी दूसरी प्रार्थना जो मैंने बच्ची के लिए की है, वो मेरे ही हाथों से पूरा होगा।

जैसे तैसे दिन बीता और फ़िर डरावनी रात हुई। कुत्ते तो आज शमशान घाट के अंदर ही बैठकर रो रहे थे। मैं पहले से डरा हुआ था, ऊपर से ये सारी आवाजें झींगुरों की, मेढकों की और कुत्तों के रोने की। सब मिलकर मुझे और ज़्यादा डरा रहे थे।

सोने से पहले आज मैंने रेडियो पर गाने भी नहीं बजाये, और लालटेन को भी जला ही रहने दिया। मैं जल्दी ही सो जाना चाहता था पर कमबख्त नींद आये तब न। बारिश धीरे धीरे तेज हो रही थी। अभी रात का पहला पहर बीता ही होगा। कि तभी सन्नाटे को चीरती हुयी एक आवाज़ मेरे कानों तक पहुंची। और ये आवाज़ थी लकड़ी के दरवाज़े पर किसी के दस्तक की। कोई बाहर से मुझे आवाज़ लगा रहा था।

" नंदू काका दरवाज़ा खोलिए"।।।।।

         

                                     क्रमशः