घोर कलियुग
अध्याय 1: अवतरण की रात
आकाश घने बादलों से ढका हुआ था। सर्द हवा की सरसराहट और कड़कती बिजली के बीच, धरती पर किसी अनहोनी की आहट महसूस हो रही थी। यह कलियुग का चरम समय था। अन्याय, अधर्म और स्वार्थ ने मानवता को जकड़ लिया था। सत्य और धर्म केवल ग्रंथों में रह गए थे। हर तरफ अराजकता और अंधकार था। लेकिन इसी अंधकार के बीच एक नई शुरुआत होने वाली थी—काळकी भगवान के अवतरण की।
वृंदावन की उस पवित्र भूमि में जहां कभी कृष्ण ने रास रचाया था, आज वह भूमि वीरान हो चुकी थी। मंदिर टूट चुके थे, घंटियों की आवाज़ विलुप्त हो चुकी थी, और गंगा की लहरें भी जैसे अपने मार्ग से भटक गई थीं। लेकिन उस रात कुछ असामान्य घटित हुआ।
मध्यरात्रि का समय था। चारों ओर गहरी नीरवता छाई हुई थी। तभी आकाश में एक चमकदार तारे ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। यह तारा न साधारण था, न स्थिर। जैसे-जैसे वह धरती के करीब आता गया, उसका आकार बड़ा और तेजस्वी होता गया। यह कोई उल्का या साधारण खगोलीय घटना नहीं थी। यह भगवान के अवतरण की पूर्व सूचना थी।
पास के गांव में, 75 वर्षीय तपस्वी नारायण बाबा अपनी झोंपड़ी में ध्यानस्थ थे। वह उन कुछेक लोगों में से थे जिन्होंने अपने जीवन में कभी धर्म का मार्ग नहीं छोड़ा। वह जानते थे कि कलियुग अपने चरम पर था, लेकिन उनका विश्वास अटल था कि भगवान किसी न किसी रूप में आएंगे और इस संसार को अधर्म से मुक्त करेंगे। जैसे ही वह ध्यान में बैठे थे, उन्हें अपने भीतर एक कंपन महसूस हुआ। उनकी आत्मा ने जैसे उन्हें संकेत दिया कि भगवान का आगमन हो चुका है।
"हे प्रभु! यह कैसा संकेत है?" नारायण बाबा ने अपने नेत्र खोले।
उन्हें लगा कि कोई दिव्य शक्ति उन्हें अपनी ओर बुला रही है। वह अपनी लाठी उठाकर जंगल की ओर चल पड़े। वह जंगल जहां उन्होंने वर्षों से तपस्या की थी, आज अजीब सी ऊर्जा से भर गया था। रास्ते में उन्होंने देखा कि पेड़, जो वर्षों से सूखे और मुरझाए हुए थे, अचानक हरियाली से भर उठे। पक्षी, जो वर्षों से मौन थे, अचानक चहचहाने लगे।
जंगल के केंद्र में पहुंचने पर, उन्होंने देखा कि एक नवजात शिशु एक सुनहरे प्रकाश के घेरे में लेटा हुआ है। उसकी आँखें असामान्य रूप से तेजस्वी थीं। उसकी उपस्थिति में कुछ ऐसा था जो किसी को भी सिर झुकाने पर विवश कर दे। नारायण बाबा समझ गए कि यह कोई साधारण बालक नहीं है। यह स्वयं भगवान का अवतार था।
"हे प्रभु! आपने इस कलियुग में यह रूप धारण क्यों किया?" बाबा ने नतमस्तक होकर पूछा।
शिशु ने हल्की मुस्कान के साथ उनकी ओर देखा। तभी आकाशवाणी हुई, "यह बालक कलियुग के विनाश और धर्म की स्थापना के लिए आया है। लेकिन इसे अभी मानव रूप में अनुभवों से गुजरना होगा। यह दुख, पीड़ा और मानवता के संघर्ष को महसूस करेगा, ताकि यह संसार को सही मार्ग दिखा सके।"
दिव्य बालक का नामकरण और आरंभिक संघर्ष
उस बालक का नाम रखा गया "वीर"। नारायण बाबा ने उस बालक को अपनी झोंपड़ी में लाकर उसकी परवरिश शुरू की। लेकिन यह परवरिश आसान नहीं थी। कलियुग के प्रभाव ने आसपास के लोगों को इतना स्वार्थी और निर्दयी बना दिया था कि उन्हें नारायण बाबा का इस दिव्य बालक के प्रति स्नेह भी सहन नहीं हुआ।
गांव के कुछ लालची लोगों ने यह अफवाह फैलाई कि नारायण बाबा के पास कोई दिव्य खजाना है, जो उन्होंने जंगल से चुराया है। एक रात, कुछ लोग बाबा की झोंपड़ी पर हमला करने आ गए। उनकी योजना थी कि उस खजाने को हासिल कर लें।
नारायण बाबा ने बालक वीर को एक गुप्त स्थान पर छिपा दिया और खुद हमलावरों का सामना करने के लिए तैयार हो गए। वह जानते थे कि यह बालक साधारण नहीं है, लेकिन अभी वह अपनी शक्तियों को समझने और उन्हें जागृत करने में असमर्थ था।
उन लोगों ने बाबा को बुरी तरह पीटा और उनकी झोंपड़ी को जला दिया। लेकिन उन्होंने वीर को खोजने में असफलता पाई। अपने अंतिम क्षणों में, नारायण बाबा ने वीर को जंगल के एक और साधु को सौंप दिया और कहा, "यह संसार इस बालक के महत्व को अभी नहीं समझेगा। इसे छिपा दो, इसकी रक्षा करो। एक दिन यह स्वयं अपने मार्ग पर चलकर इस संसार को बदल देगा।"
बाबा का बलिदान देखकर बालक वीर की आंखों में पहली बार आँसू आए। वह कुछ भी समझने में असमर्थ था, लेकिन उसकी आत्मा ने यह महसूस किया कि उसने अपना पहला संरक्षक खो दिया है।
वीर का संघर्षपूर्ण बचपन
साधु, जिसने वीर को अपनाया था, उसे लेकर एक दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्र में चला गया। वहां वीर ने प्रकृति के साथ रहना और जीवित रहना सीखा। लेकिन कलियुग का प्रभाव हर जगह फैला हुआ था। साधु ने उसे सिखाया कि अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष कैसे किया जाए।
"वीर, यह संसार तुम्हें हर पल परीक्षा में डालेगा। तुम्हारे सामने ऐसे प्रश्न आएंगे जिनके उत्तर कभी स्पष्ट नहीं होंगे। लेकिन याद रखना, तुम्हारा जन्म अधर्म का अंत करने के लिए हुआ है।"
धीरे-धीरे वीर बड़ा हुआ। उसकी आँखों में तेज और दिल में साहस था। लेकिन उसके रास्ते में कठिनाइयों का अंत नहीं हुआ। एक दिन पहाड़ी पर रहने वाले लोगों पर आक्रमण हुआ। लुटेरों ने वहां के सभी लोगों को बंदी बना लिया। वीर ने देखा कि निर्दोष लोग अपने जीवन के लिए भीख मांग रहे हैं।
यहीं वीर ने अपनी पहली शक्ति का अनुभव किया। उसकी आँखों में गुस्से की ज्वाला थी। उसने अपने भीतर की अज्ञात ऊर्जा को महसूस किया। जब लुटेरों ने एक बच्चे को मारने की कोशिश की, तो वीर के हाथों से अचानक एक दिव्य किरण निकली और उन लुटेरों को नष्ट कर दिया।
एक नई शुरुआत, लेकिन गहरे रहस्य
लोगों ने वीर को भगवान मानना शुरू कर दिया। लेकिन वीर ने खुद को भगवान मानने से इंकार कर दिया। उसने कहा, "मैं केवल एक साधारण बालक हूं। मैं वही करता हूं जो सही है।"
हालांकि, वीर को अब अपने उद्देश्य का एहसास हो गया था। वह जानता था कि उसे इस संसार को बदलना है। लेकिन यह मार्ग सरल नहीं था। जो लोग उसकी मदद करने को तैयार थे, वे भी धीरे-धीरे उससे दूर होने लगे। कुछ लोग उसे भगवान समझकर पूजने लगे, तो कुछ ने उसे छल और धोखे से मारने की योजना बनाई।
वीर ने महसूस किया कि हर अच्छाई के पीछे बुराई का साया होता है। और यहीं से उसकी कहानी ने एक नया मोड़ लिया। वह अपने भीतर उठने वाले सवालों के जवाब खोजने निकला।
"क्या मैं सच में इस संसार को बदल सकता हूं? क्या यह मानवता अधर्म के जाल से मुक्त हो सकती है?"
वीर की इस यात्रा में उसे कई दुश्मनों का सामना करना पड़ा। कुछ लोग उसकी शक्तियों का इस्तेमाल करना चाहते थे, तो कुछ उसे खत्म करना चाहते थे। लेकिन वीर ने ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो, वह सत्य और धर्म की राह पर अडिग रहेगा।
अध्याय का समापन: वीर और पीड़ा का सामना
लेकिन यह कहानी केवल विजय की नहीं थी। यह कहानी वीर के दुखों की भी थी। हर संघर्ष के साथ उसने किसी न किसी अपने को खोया। नारायण बाबा की मृत्यु से लेकर अपने नये मित्रों के बलिदान तक, वीर ने हर कदम पर दुख को महसूस किया।
उसने समझा कि भगवान का अवतार होना केवल शक्ति का प्रदर्शन नहीं है। यह मानवता के कष्टों को समझने और उन्हें सहन करने की यात्रा भी है।
अंधकार घना था, लेकिन वीर की आँखों में प्रकाश का संकल्प था। उसे अभी इस यात्रा में कई रहस्यों का सामना करना था।
आगे क्या होगा?
क्या वीर अपनी शक्तियों को पूरी तरह पहचान पाएगा? क्या वह मानवता को इस घोर कलियुग से निकाल पाएगा? या फिर यह यात्रा उसे और भी अधिक पीड़ा और त्रासदी की ओर ले जाएगी?
(अध्याय समाप्त।)