अध्याय 2
दोपहर 1:00 बजे
डॉक्टर अभिमन्यु अपने कुछ साथियों के साथ अस्पताल का चक्कर लगाने जाता है।
उसके साथ कुछ जूनियर डॉक्टर और एक सीनियर डॉक्टर भी थे।
जूनियर डॉक्टर अभिमन्यु की ही उम्र के थे।
लेकिन सीनियर डॉक्टर उससे थोड़ा बड़ा था, इसलिए अभिमन्यु ज़्यादातर जूनियर डॉक्टर से ही बात कर रहा था। वह सीनियर डॉक्टर से सिर्फ़ काम के बारे में ही बात कर सकता था।
उनके साथ वह हर कमरे, हर मरीज़ और हर मंज़िल का मुआयना कर रहा था। हर कमरा चमक रहा था। उसे अपने पिता पर बहुत गर्व था, "मेरे पिता ने इतना बढ़िया अस्पताल बनवाया है।"
तभी एक जूनियर डॉक्टर ने अभिमन्यु से पूछा - "सर, आप हमेशा विदेश में ही रहे हैं, फिर आपने यहाँ आने का क्यों सोचा?"
"तूम यू.के. में भी रह सकते थे, फिर तुम भारत क्यों लौटे?"
"जहाँ तक मुझे पता है, तुम्हारी माँ का भी यू.के. में एक अस्पताल है और तुम भी वहीं हो?"
अभिमन्यु उनकी बातें सुनकर कुछ देर चुप रहा, जैसे वह कुछ सोच रहा हो, फिर कुछ देर बाद उसने जवाब दिया।
"हाँ, तुम जो सोच रहे हो, वह सही है, मैं भी वहाँ रह सकता था। मैं अपनी माँ के अस्पताल की देखभाल कर सकता था।"
"लेकिन मुझे लगता है कि मेरे पिता को मेरी ज़्यादा ज़रूरत है।"
"अरे, ऐसा नहीं है कि मैं अपनी माँ के अस्पताल की देखभाल नहीं करूँगा, मैं बीच-बीच में वहाँ जाऊँगा। हर महीने एक बार मैं वहाँ भी जाऊँगा।"
तभी एक और डॉक्टर ने कहा, "यह तो बहुत परेशानी वाली बात होगी। तुम्हें हर महीने भागदौड़ करनी पड़ेगी।"
"ऐसी स्थिति में तुम यह कैसे कर पाओगे?"
अभिमन्यु ने कहा, "इसमें क्या परेशानी है, इस बहाने हर महीने छुट्टी पर जाना मिलेगा।"
यह सुनकर सभी हँसने लगे।
अभिमन्यु की हमदर्दी वाकई बहुत अच्छी थी। किसी भी परेशानी में होने के बाद भी वह छोटी-छोटी बातों में खुश हो जाता था।
वह एक खुशमिजाज लड़का है। उसका मानना था कि "हँसने और मुस्कुराने से हम दुनिया की किसी भी समस्या का समाधान कर सकते हैं"। हम उसका सामना कर सकते हैं, इसलिए हमेशा खुश रहो"
वह हमेशा दूसरों को अपने साथ मुस्कुराने का मौका देता है। कुछ ही समय में उसने अस्पताल के कई लोगों को अपना दोस्त बना लिया था। ऐसा लगता था जैसे उसकी बातों में कोई जादू था जिसकी वजह से लोग खुद-ब-खुद उसकी तरफ खिंचे चले आते थे।
अभिमन्यु की मां यूरोपियन नागरिक थीं। जब उसके पिता डॉ. राठौर अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए यूके गए तो वहां उनकी मुलाकात रोजी से हुई। दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ते थे।
एक दिन रोजी रात को अपने दोस्तों के साथ टहल कर लौट रही थी। तभी कुछ लोग उसका पीछा करने लगे और उसे परेशान करने लगे।
उसके कई दोस्त वहां मौजूद थे लेकिन किसी ने उसकी मदद नहीं की। उसके दोस्तों को लगा कि यह सब बस मजक-मस्ती है।
लेकिन किसी को नहीं लगा कि उन्हें वाकई मदद की जरूरत है। तभी वहां एक भारतीय लड़का जो हाल ही में उसके कॉलेज आ रहा था।
जब उसने उन्हें परेशान होते देखा तो वह अकेले ही उन लड़कों से उनकी मदद करने के लिए लड़ने लगा। उन लड़कों ने उसे खूब मारा-पीटा और उसकी हालत खराब कर दी लेकिन फिर भी वह बिना किसी झिझक के उन लड़कों के सामने खड़ा रहा।
यह देखकर रोजी के दूसरे दोस्त भी वहां आ गए और वे लड़के भाग गए।
इसके बाद विक्रम राठौर और रोजी के बीच धीरे-धीरे मुलाकातें बढ़ने लगीं और जल्द ही वे दोस्त बन गए और कुछ ही समय में वे एक-दूसरे से प्यार करने लगे।
वे दोनों हमेशा साथ-साथ घूमते-फिरते थे।
साथ-साथ पढ़ते थे और हमेशा साथ ही रहते थे। उनका प्यार और भी गहरा हो गया और उन्होंने साथ रहने का फैसला कर लिया।
घरवालों को उनके साथ रहना पसंद नहीं था। किसी तरह दोनों ने अपने-अपने घरवालों को मनाया और तब कहीं जाकर उनके रिश्ते को मंजूरी मिली।
लेकिन फिर भी दोनों के परिवारों की तरफ से एक शर्त रखी गई कि दोनों को अपना-अपना करियर पर फोकस करना होगा।
उसके बाद ही उन्हें साथ रहने की इजाजत मिल सकती है।
"पहले अपना करियर बनाओ और फिर शादी करो।"
दोनों अपने परिवार में इकलौते बच्चे थे, इसलिए दोनों को अपने परिवार की जिम्मेदारियां निभानी थीं।
डॉक्टर विक्रम राठौर को अपने पिता के अस्पताल की जिम्मेदारी संभालनी थी और उन्हें ऊंचे पदों पर ले जाना था।
इधर रोजी को भी अस्पताल में अपने परिवार की देखभाल करनी थी और उन्हें भी ऊंचे स्थान पर ले जाना था। दोनों ने खूब मेहनत की, एक-दूसरे की मदद की और दोनों अस्पतालों को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया।
डॉक्टर राठौर प्लास्टिक सर्जन बने और डॉक्टर रोजी मनोचिकित्सक।
दोनों ने अपने-अपने क्षेत्र में खूब नाम और शोहरत कमाई।
अब दोनों मिलकर अपने-अपने अस्पतालों का नाम रोशन कर रहे हैं। अब जब उनका बेटा बड़ा हो गया है और अपने माता-पिता की जिम्मेदारी संभालने के लिए तैयार है, तो दोनों ने अपनी सारी जिम्मेदारियां उसके कंधों पर डाल दी हैं
अब उनका बेटा अपने देश और यू.के. दोनों अस्पतालों की जिम्मेदारी संभालेगा
बातें करते-करते उन्हे पता ही नहीं चला कि वे लोग कब तीसरी मंजिल पर पहुंच गए।
इस मंजिल पर कुछ खास मरीज ही रहते थे। डॉ. अभिमन्यु हर कमरे में मरीजों से मिल रहे थे और उनके बारे में जानकारी जुटा रहे थे।
धीरे-धीरे चलते हुए और अपने साथियों से बात करते हुए वे कमरा नंबर 108 के सामने से गुजरते हैं। जो लोग उनके सम्मान में वहां रुकते हैं, वे वहीं खड़े हो जाते हैं।
जब उनके साथियों ने उन्हें वहां खड़े देखा, तो उन्हें लगा कि शायद डॉक्टर अभिमन्यु इस कमरे में मौजूद मरीज के बारे में जानना चाहते हैं।
उनमें से एक जूनियर डॉक्टर ने उनसे कहा, "डॉक्टर, इस मरीज के बारे में किसी को कुछ नहीं पता। कोई नहीं जानता कि यह कितने सालों से कोमा में है।"
अभिमन्यु बिल्कुल शांत खड़ा था, जूनियर डॉक्टर जो कुछ भी कह रहे थे, उनकी कोई आवाज उनके कानों तक नहीं पहुंच रही थी।
उनका दिमाग सुन्न हो गया था।
ऐसा लग रहा था जैसे वे किसी ब्लैक होल में गिर रहे हों और कोई चुंबकीय शक्ति उन्हें अपनी ओर खींच रही हो।
उन्हें कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था। उनके पैर वहीं फर्श पर चिपके हुए थे। उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे और एक खालीपन ने उनके दिल पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया था।
एक अनजान दर्द ने उसके पूरे दिल और दिमाग को हिलाकर रख दिया था।
अभिमन्यु बेहोश होकर वहीं गिर पड़ा.....
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