लॉकडाउन का समय था और कोरोना का प्रकोप अपने चरम पर था। ऐसे भयावह हालात मे सत्यम के साथ एक नयी कहानी शुरू हुई।
मायुष् सा सत्यम क्लीनिक के बाहर लगे टेबल पर बैठा था।
उसे अंदर से परी की कमी खाये जा रही थी। अकेले बैठे बैठे वो परी को याद करके अक्सर रोने लगता। तभी उसके फोन के कुटुंब एप पर एक मेसेज आया
- "एलियन क्यु"??
सत्यम ने मोबाइल मे एप ओपन किया मेसेज भेजने वाली एक लड़की थी जो सत्यम का कुटुंब एप का अबाउट देख कर कंमेंट् की थी।
सत्यम ने अपने कुटुंब आई डी के अबाउट मे लिखा था- नेवर ट्राई टू अंडरस्टैंड मी बिकाज् एम एन एलियन।
आगे की स्टोरी के लिये लेखक खुद को सत्यम मान लेता हैं
मैंने मेसेज देख कर पहली बार मे सोचा की कोई रिप्लाई न दु, पर अकेले उदास रह के काफी परेशान हो गया था मैं।
मैंने रिप्लाई मे लिखा "क्युकी की आज तक बहुत लोग बोल चुके हैं कि तुम्हे मुझसे बेहतर और कोई नहीं समझ सकता, मैं इंसान हु सुडोकु नही की कोई समझ ले"।
उधर से अर्पिता ने फिर से वही सवाल किया " पर एलियन क्यु लिखे हो"।
-क्यु की एलियन को भी आज तक कोई समझ नही पाया हैं। 😂😂
मेसेज सीन हुआ पर अर्पिता की तरफ से कोई रिप्लाई नही आया।
उस वक़्त मुझे नही लगा था की आगे चलकर अर्पिता मेरी जिंदगी मे बहुत ख़ास जगह लेने वाली हैं।
मैं फिर से परी की यादो मे खो गया उसे सोच सोच कर मेरा दिल दिमाग पुरा भारी हो जाता था और अंदर से जोर जोर से चिल्लाने का मन करता था। आँखे भर जाती थी और काम करने मे मन थोड़ा भी नही लगता था।
ये सब होना लाजमी भी था क्युकी परी मेरी जिंदगी की पहली ऐसी लड़की थी जिसके बारे मे मैं ख्वाब देखने लगा था। शायद वो मेरी जिंदगी का पहला लव था।
दोपहर के दो बजे थे डॉक्टर साहब लंच करने के लिये घर चले गये। मैं भी क्लिनिक का अंदर का दरवाजा बंद करके मेडिकल स्टोर पर चला गया हर दिन की तरह आज भी मेडिकल स्टोर के मालिक ने मुझे बीस रुपये दिये जिसे लेकर मैं पास के होटल मे लिट्टी खाने चला गया। बीस रुपये मे तीन लिट्टी और थोड़ा छोला और चटनी यही था हर दोपहर का मेरा खाना। लंच कर के मैं वापस से मेडिकल शॉप पर पहुँच गया मुझे चार बजे तक वही पर काम करना पड़ता था। कोई ग्राहक आता तो उनकी दवाई की पर्ची देखकर दवा निकालना पैसे जोड़ना और अगर कोई दवाई हमारे मेडिकल शॉप पर ना रहे तो उसे बगल के मेडिकल शॉप पर से ले आना ताकि ग्राहक को कहीं और ना भटकना पड़े।
चार बजे फिर से मैं क्लिनिक पर पहुँच जाता था। क्लिनिक पर मेरा काम बहुत आसान था कोई मरीज आये तो पर्ची बनाना और बगल मे लगे डेस्क पर बैठने को बोल देना। कोई खास ग्राहक आये तो उनके लिये चाय या मिठाई लाना। इन सबके अलावा अगर किसी मरीज को इंजेक्शन लगाना हो तो वो भी मूझे अच्छे से आता था। फिर शाम को छः बजे डॉक्टर साहब घर चले जाते थे तब मैं क्लिनिक का सटर गिरा के उसमे ताला लगा के वापस से मेडिकल शॉप पर चला जाता था। वहा मैं क्लिनिक का चाभी देकर सात बजे तक वही रुकता उसके बाद मैं घर चला आता था।
और अगले सुबह फिर से 8:30 बजे मैं वापस से क्लिनिक पर पहुँच जाता था। और इस काम के लिये मुझे 1500 रुपये मिलते। मैं सत्रह साल का लड़का जो 9वी कक्षा मे नवोदय मे पढ़ता था। कोरोना के कारण मेरे स्कूल की छूटी चल रही thi और मेरे घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नही थी इसलिये मुझे क्लिनिक पर काम करना पड़ता था।