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Chapter 2 - #दिल से शायर

कतरा कतरा आज फिर मैं टूटा हूं

जमाने से उम्मीद कहां मैं खुद ही खुद से रूठा हूं

सच्चा मुशफिर हूं नहीं मैं सदियो से ही झूठा हूं

परछाई तक को पकड़ न सका...

मै अपने साये से भी पीछे छूटा हूं।

यहां रात होती है अरमान मर जाते हैं

अपना कहने वाले ही घाव गहरा कर जाते हैं

यू तो भीड़ लाखो की है यहाँ

बस काम पड़ने पर सब मुकर जाते हैं।

आजकल बोलता नहीं कुछ चुप चाप मैं खामोस सा हूं

चली जाती है फुंहारे छोड़ मुझे मैं अकेली पड़ी उस ओस सा हूँ

अरमान ब्यान नहीं होते मुझसे...

मैं रिक्त पड़ा शब्दकोश सा हूं।

सफर अधूरा साथ अधूरा न कुछ पूरा होने को है

सपने आंखो में रहे नहीं थक के अब बस सोने को है

न पा सका चाहत अपनी को अब क्या बचा फिर खोने को है

आंखे प्यासी हो चली अब ना आंसू इनमेंं रोने को है।

न तीर है न शमशीर है

फिर भी घाव गंभीर है

कोई किस्मत पर कर रहा है राज महलो में

कोई मेहनत करके भी फकीर है।

उम्मीद करता हूं...

ये वक्त बदलेगा हर तख्त बदलेगा

सुप्त सोया अब रक्त बदलेगा

नरम-सा रवैया अब सख्त बदलेगा

ज़रा सब्र कर ए काफ़िर...

हर दौर बदलेगा हर वक़्त बदलेगा।