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Chapter 143 - *जीवन की रोटी

*🍞जीवन की रोटी🍞*

*08 जुलाई 2021*

*विषय- मांगो, तो तुम्हें दिया जाएगा;....क्योंकि जो कोई मांगता है, उसे मिलता है;....*

*(मत्ती 7: 7-8)*

*(भाग-3)*

*और जो कुछ तुम प्रार्थना में विश्वास से मांगोगे वह सब तुम को मिलेगा॥*

*(मत्ती 21:22)*

*अतिप्रिय बंधुओ परम प्रधान, सृजनहार, परमात्मा परमेश्वर का धन्यवाद हो इस अद्भुद वचन के लिए और उसकी महिमा की स्तूति युगानुयुग तक होती रहे क्योंकि वो भला है और उसकी करुणा सदा काल की है lll*

प्रिय जनों जैसा कि हमने *पहिले 2 भागों* में पढ़ा कि मनुष्य मात्र को अपने सृजनहार से कुछ भी प्राप्त करने के लिए अपने मन की बातों को खोलकर अर्थात अपना मुँह खोलकर अर्थात अपनी जुबान से कहे गए अति स्पष्ट शब्दों के द्वारा परमेश्वर के सम्मुख प्रस्तुत करना है अर्थात साफ साफ शब्दों में उससे कह देना है अर्थात उससे बोलना और बातचीत करना है अर्थात कुछ भी पाने के लिए उससे स्पष्ट रीति से बोलकर मांगना ही उससे बोलना और बातचीत करना ही प्रार्थना करना है और वह भी शुद्ध मनसा से अर्थात परमेश्वर की सिद्ध इच्छा को जानकर उसी के आधार पर उसी एक से मांगना नितांत आवश्यक होता है lll परंतु इसे विडम्बना ही कहलें या कि कुछ और कि इस युग में बहुतेरे ऐसे लोग हैं जो सब कुछ उपरोक्त रीति से विधिवत होकर करने के बाद भी उनकी प्रार्थनाओं का प्रतिफल नहीं पाते हैं अर्थात उनकी प्रार्थनायें नहीं सुनी जाती है, आखिर क्यों ???

प्रिय जनों आज हम प्रार्थना के इस अति महत्वपूर्ण *भाग 3* में इसी गंभीर विषय पर पवित्रात्मा में होकर चर्चा करने जा रहे हैं lll

अतिप्रिय बन्धुओ सब कुछ सही होकर भी एक इंसान प्रार्थना के प्रतिफल से क्यों वंचित रह जाता है???

क्योंकि उनका ख़ुद का अपने ही सृजनहार परमेश्वर के प्रति अविश्वास, अल्पविश्वास एवं संदेह जो उन्हें अपनी ही प्रार्थनाओं के प्रतिफल को पाने से वंचित कर देता है, रोक देता है lll क्योंकि यह बात मैं अपनी ओर से नहीं कह रहा हूँ वरन परम प्रधान परमात्मा परमेश्वर का सनातन सत्य और जीवंत वचन वचन अति स्पष्ट रीति से यह उद्घोषणा करता है कि - *और विश्वास बिना उसे (परम् प्रधान सृजनहार परमात्मा परमेश्वर को) प्रसन्न करना अनहोना है, क्योंकि परमेश्वर के पास आने वाले को विश्वास करना चाहिए, कि वह है; और अपने खोजने वालों को प्रतिफल देता है।"*

*(इब्रानियों 11:6)*

यद्यपि कुछ लोग इस विषय पर तर्क कुतर्क भी करने लगते हैं अरे सर जी बिना विश्वास के थोड़ी न हमने बपतिस्मा ले लिया, हमें विश्वास है तभी तो हम मसीह के साथ हैं, इत्यादि इत्यादि लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखने से भी अधिक जरूरी होता है *परमेश्वर का विश्वास को प्राप्त कर उसी के द्वारा से उसके सम्मुख जाना*

अर्थात परालौकिक अथवा ऊपर से दिया जाने वाला सम्पूर्ण आत्मिक विश्वास को प्राप्त करना, क्योंकि निरे भौतिक और सांसारिक अर्थात स्वाभाविक विश्वास के द्वारा जिसे प्रत्येक मनुष्य अपनी माता के गर्भ से ही सीख कर आते हैं हम इस जगत में परमेश्वर से कुछ भी प्राप्त करने हेतु सक्षम नहीं हैं, हाँ कुछ अपवाद जरूर हैं वह भी आंशिक सफलताओं के परन्तु क्योंकि स्वाभाविक विश्वास में एक निरंतरता और स्थिरता ना होने के कारण ही एक मनुष्य को विश्वास की वास्तविक सच्चाई और गहराई को समझना नितांत आवश्यक होता है, उदाहरण के लिए प्रभु येशु मसीह के शिष्यों को ही देखे, यद्दपि वे रात दिन प्रभु येशु मसीह के साथ ही रहते थे, फिर भी उनमें परमेश्वर का विश्वास जो सम्पूर्णतः पवित्रात्मा का दान होता है; जो कि पवित्रात्मा को विधिवत रूप से प्राप्त करने के साथ ही किसी भी मनुष्य में आता है, जो की उस समय उन चेलों मैं नहीं होने के कारण ही, वे कई बातों में असफल हुए, उदाहरण के लिए एक घटना को लेना चाहूँगा जो कि यूँ इस तरह से पवित्र शास्त्र बाइबिल में उल्लेखित है कि - *तब यीशु ने (उस लड़के के अंदर जो दुष्टात्मा थी) उसे घुड़का, और दुष्टात्मा उस में से निकला; और लड़का उसी घड़ी अच्छा हो गया। तब चेलों ने एकान्त में यीशु के पास आकर कहा; हम इसे क्यों नहीं निकाल सके?*

*उस ने उन से कहा, अपने "विश्वास की घटी के कारण:" क्योंकि मैं तुम से सच कहता हूं, यदि तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी हो, तो इस पहाड़ से कह सकोगे, कि यहां से सरक कर वहां चला जा, तो वह चला जाएगा; और कोई बात तुम्हारे लिये अन्होनी न होगी।*

*(मत्ती 17:18-20)*

प्रियजनों सम्पूर्ण बाइबिल को यदि हम भलीभांति पवित्रात्मा में होकर अध्ययन करें तो हम इस जगत में दो तरह के विश्वास को पाते हैं, एक तो निरा भौतिक, सांसारिक, अर्थात स्वाभाविक विश्वास जो कि प्रत्येक मनुष्यों में पैदाइशी होता है, परन्तु स्मरण रहे कई बार इस जगत में ही देखने में आता है कि इसी स्वाभाविक विश्वास के चरमोत्कर्ष पर जाकर ही (अन्यजाति) मनुष्य मूरतों के साम्हने अपनी देह के अंगों को तक बलि करके चढ़ा देता है, अप्रत्याशित दुखों तकलीफों को सहता है, सिर्फ अपने कुल देवता जो कि उसके लिए तो परमात्मा ही होता है उसे प्रसन्न करने के लिए मुंह मांगा वरदान उनसे पाने के लिए और खुद को वह उस देवता का मुरीद या भक्त या विश्वासी ही कहता है और अपने इसी भौतिक अंध विश्वास के चलते वो दुनिया को जीतने की पुरजोर कोशिश करता है, और विजय नहीं पाने पर निराशा के गर्त में भी चला जाता है, या नास्तिकता का लबादा ओढ़ लेता है या फिर घोर निराशा में आकर आत्महत्या जैसे जघन्य अपराध को करने से भी नहीं कतराता *क्योंकि यह स्वाभाविक विश्वास परालौकिक विश्वास की तरह हरेक परिस्थितियों में स्थिर नहीं रहता है ना ही इस विश्वास में ज्ञान का पुट कहीं नज़र आता है* परन्तु यह भौतिक विश्वास ही एक मनुष्य को पल भर में स्वर्ग के भी ऊपर पहुंचा देता है और यही विश्वास दूसरे ही पल मनुष्य को पाताल के भी नीचे ले जाकर जीते जी नारकीय भी बना देता है lll

यह स्वाभाविक विश्वास परमेश्वर के होने का आभास तो दिलाता है किंतु वहीँ दूसरी ओर उसके होने का पुख्ता सबूत (प्रमाण) भी मांगता है क्योंकि यह विश्वास सिर्फ आँखों से देखी हुई वस्तुओं को ही मानने हेतु मनुष्य को विवश कर देता है, परम ज्ञान उस अर्थात परालौकिक ज्ञान के आभाव में जो कि सिर्फ और सिर्फ परमेश्वर का आत्मा अर्थात पवित्रात्मा अर्थात ज्ञान का आत्मा को पाने से ही एक मनुष्य पा सकता है, किसी वृक्ष अथवा पेड़ के नीचे तपस्या अथवा समाधी में लीन होने से नहीं lll

परन्तु वहीं दूसरी ओर *परमेश्वर का विश्वास,* जो कि विशुद्ध परालौकिक, अर्थात सम्पूर्णतः आत्मिक विश्वास जिसे एक मनुष्य पवित्रात्मा के दान के रूप में परमेश्वर के अनुग्रह से प्रभु येशु मसीह के नाम से पाता है और यही परालौकिक विश्वास उस मनुष्य को अपने ही सृजनहार परमात्मा परमेश्वर में हर एक स्थिति एवं परिस्थितियों में स्थिर बनाये रखता है और असम्भव से असंभव कार्य को भी सम्भव बना देने में सक्षम होता है जिसे अंग्रेजी भाषा में, *सुपरनेचुरल फेथ* अर्थात *परालौकिक विश्वास* कहते हैं, और प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि इसी परालौकिक विश्वास को पाने हेतु खुद को प्रभु येशु के चरणों में अर्पित करे और विश्वास की आत्मा को प्राप्त करने का प्रयास करे क्योंकि परम प्रधान परमात्मा परमेश्वर का सनातन सत्य और जीवंत वचन भी अति स्पष्ट रीति से आदेश देता है कि -

*हे प्रियो, जब मैं तुम्हें उस उद्धार के विषय में लिखने में अत्यन्त परिश्रम से प्रयत्न कर रहा था, जिस में हम सब सहभागी हैं; तो मैं ने तुम्हें यह समझाना आवश्यक जाना कि "उस विश्वास" के लिये पूरा यत्न करो जो पवित्र लोगों को "एक ही बार" सौंपा गया था।*

*(यहूदा 1:3)*

प्रियजनों इसी परालौकिक विश्वास को पवित्र शास्त्र बाइबल इस तरह से परिभाषित करता है कि- *"अब विश्वास आशा की हुई वस्तुओं का निश्चय, और अनदेखी वस्तुओं का प्रमाण है।"*

*(इब्रानियों 11:1)*

हाँ बंधुओं इसी परिभाषा में तो उस परालौकिक विश्वास का अद्भुद रहस्य छुपा है अर्थात हमारी आशाओं का दाता परमेश्वर अपने ज्ञान के भले भंडार के द्वारा उन भली वस्तुओं की आशा जिन्हें हम अभी देखते तो नही हैं फिर भी उन्हें पाने का निश्चय हमारी आत्मा में पवित्रात्मा के द्वारा प्रमाण सहित यूँ इस तरह से उत्पन्न कर देता है कि हम आत्मा में होकर उन्हें परमेश्वर से दृढ़ निश्चय के साथ मुंह खोलकर मांगने लगते हैं यूँ प्रार्थना करने लगते हैं जैसे कि वो हमारे सम्मुख हैं ओर मान भी लेते हैं कि हमने उन्हें पा लिया है या वे हमें दे दी गयी हैं और निसंदेह वे हमारी हो भी जाती हैं जैसे कि स्वर्ग और उसमें की वस्तुएं और स्वयं परमेश्वर जो हमें दिखता तो नहीं है परंतु पवित्रात्मा उनके होने का प्रमाण हमारी आत्मा में यूँ इस तरह से डालते हैं कि हम सब कुछ भूलकर उसी एक की महिमा के लिए मुँह खोलकर प्रार्थना करने लगते हैं, अर्थात उन्हें मांगने लगते हैं अथवा अपने मुंह से अंगीकार करने लगते है, वरन यूँ कहें कि परम् प्रधान परमात्मा परमेश्वर के बारे में सब कुछ जानने वाले पवित्रत्मा स्वयं ही हममें से होकर परमेश्वर की सिद्ध इच्छा के अनुसार प्रार्थना करने लगते हैं और ऐसे ही हम निश्चित तौर पर प्रतिफल भी पाते हैlll

दरअसल परमेश्वर का वचन भी तो हमें यही सिखाता है कि-

*जिस वस्तु को हम नहीं देखते, यदि उस की आशा रखते हैं, तो धीरज से उस की बाट जोहते भी हैं।। इसी रीति से आत्मा भी हमारी दुर्बलता में सहायता करता है, क्योंकि हम नहीं जानते, कि प्रार्थना किस रीति से करना चाहिए; परन्तु आत्मा आप ही ऐसी आहें भर भरकर जो बयान से बाहर है, हमारे लिये बिनती करता है।(रोमियो 8:25-26)*

इसीलिए तो प्रेरित पौलुस अपनी पत्री में लिखते हैं कि -

*और किसी को उसी आत्मा से विश्वास; और किसी को उसी एक आत्मा से चंगा करने का वरदान दिया जाता है।*

*(1 कुरिन्थियों 12:9)*

अर्थात परालौकिक याने कि पूर्ण आत्मिक विश्वास भी परमेश्वर के द्वारा मनुष्यों को दिया जाने वाला पवित्रात्मा का वरदान ही है, इसमें कोई दो राय होना ही नहीं चाहिए,

परंतु अफसोस, कि ये बातें उन्हें बिल्कुल भी समझ में नहीं आएगी जिन्होंने विधिवत रूप से पवित्रात्मा को नहीं पाया है इसीलिए उनके अपने निज जीवन में अथवा उनके द्वारा किसी जरूरतमंद के जीवन में भी कोई अद्भुद आश्चर्य कर्म नहीं होते हैं क्योंकि ऐसों की प्रार्थनाऐं भी लगभग सुनी नहीं जाति है lll

स्मरण रहे पवित्र शास्त्र बाइबिल भी गवाह है इस बात का कि इसी परालौकिक विश्वास का वरदान पाने के लिए ही, प्रभु येशु के तीन दिन बाद म्रत्यु से जी उठने के पश्चात दिए गए उसी के आदेशानुसार, उसके स्वर्गारोहण के पश्चात जब सारे शिष्य एक मन और एक चित्त होकर एक जगह एकत्रित होकर प्रार्थना में लवलीन थे तभी प्रभु येशु मसीह के स्वर्गारोहण के ठीक 50 वे दिन पवित्रात्मा बल के साथ उन सभों पर जो तकरीबन 120 मनुष्य थे उन पर उतर आए थे और वे सभी अन्य अन्य भाषाओं में बोलने और भविष्यद्वाणी करने लगे थे उसके बाद सचमुच रातों रात उनके विश्वास में ऐसा परिवर्तन आया कि यही भगोड़े चेले जो प्रभु के पकड़वाए जाते समय डर के मारे भाग खड़े हुए थे अब प्रभु येशु की सेवा में अपना सर्वस्व यहां तक कि अपने प्राण देने के लिए भी न सकुचाये ना ही डरे और प्राण देने तक प्रभु येशु के विश्वास पात्र बने रहे और असहनीय दुखों तकलीफों में भी उन्हें सहकर अपने अपने प्राणों को भी न्योछावर कर दिया, और अपने जीवित रहने के दिनों में बड़े बड़े अद्भुद आश्चर्यकर्म भी किये कि देखकर सारी दुनिया ने अचंभा किया और परमेश्वर की महिमा भी की lll

प्रिय जनों इसी विश्वास, हाँ बंधुओं बिल्कुल इसी विश्वास की आत्मा को विधिवत पाने हेतु हमें भी पूरी आत्मा और सच्चाई से पुरजोर प्रयत्न करना चाहिए,क्योंकि पौलुस प्रेरित ने तो इसी विश्वास के विषय यहां तक कहा है कि - *इसलिये कि हम में वही विश्वास की आत्मा है, (जिस के विषय मे लिखा है, कि मैं ने विश्वास किया, इसलिये मैं बोला) सो हम भी विश्वास करते हैं, इसी लिये बोलते हैं।*

*(2 कुरिन्थियों 4:13)*

पौलुस प्रेरित का पवित्रात्मा से भरकर कहा गया यह वक्तव्य स्पष्ट प्रमाण है कि उन्होंने परमेश्वर के अनुग्रह से प्रभु येशु के नाम से पवित्रात्मा पा लेने के पश्चात ही विश्वास की बातें कहीं इसी विश्वास के द्वारा ही हर एक कठिन परिस्थिति में भी वे प्रभु में प्राण देने तक बने रहे स्थिर रहे lll

अर्थात परालौकिक सम्पूर्ण आत्मिक परमेश्वर का विश्वास जिसे पाने के बाद ही हम विश्वास की प्रार्थना (जो सबमें सब कुछ कर सकती है) कर सकते हैं और तब ही हमारी प्रार्थना स्वीकार्य होती है निसंदेह प्रतिफल मिलता है निःसंदेह ऐसा कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं है lll

अतिप्रिय बंधुओ मैं जानता हूँ कि बहुतेरे हैं इस जगत में प्रभु को मानने वाले, जिन्हें मेरी उपरोक्त बातें हजम नहीं होंगी, परतु इस तरह के विश्वासियों के लिए अफसोस के साथ मुझे सिर्फ यही कहना पड़ेगा कि, आपने अब तक विधिवत रूप से पवित्रात्मा को नहीं पाया है lll

स्मरण रहे ऐसे लोग भूल में इसलिए भी पड़ जाते हैं क्योंकि कभी कभी स्वाभाविक विश्वास से भी (जो कि पवित्रात्मा के अभाव में स्थिर तो नहीं हो सकता ) प्रार्थना करने गिड़गिड़ाने पर हमारा परमेश्वर जो दया करुणा और प्रेम का अथाह सागर है, अपनी ही नियोजना के अनुसार मनुष्यों को बहुत कुछ दे देते हैं क्योंकि वे भी भले ही विश्वास में कमजोर अथवा अल्प विश्वासी होते हैं परन्तु येशु मसीह को ही अपना प्रभु मानते हैं और इनके लिए पवित्र लोग निरंतर प्रार्थना भी करते रहते हैं फिर भी कई बार ये इसी गलफहमी में जीते हैं की प्रभु ने इनकी प्रार्थना को सुन ली है और ये लोग इसी से संतुष्ट भी हो जाते हैं आगे बढ़ने की कोशिश नहीं करते परन्तु जब चालाक और धूर्त शैतान के चंगुल में फँसते हैं तब इनकी हेकड़ी उतर जाती है हजारों रूपये खर्च करके बड़े बड़े सेवकों के पास जाकर रोते हैं गिड़गिड़ाते हैं क्योंकि तब इनका स्वाभाविक, भौतिक विश्वास डगमगा जाता है पवित्रात्मा के आभाव में lll

यध्यपी वचन तो यहां तक कहता है कि जो उसे नहीं मानते अर्थात अधर्मियों पर भी परमेश्वर मेंह वर्षाता है और उन्हें भी भोजन पदार्थ प्रदान करता है और यह तो उस अनादि और अनन्त परमेश्वर की प्रत्येक मनुष्यों के प्रति दया करुणा और प्रेम की गहराई है जिसके कारण वह ऐसा करता है जिसे ये आधे अधूरे और पाखंडी लोग भलीभांति समझ नहीं पाने के कारण ख़ुद को बदलने के वजाय इसी बात से खुश हो जाते हैं कि वे भूखे नहीं मर रहे हैं, प्रभु कि कृपा उन पर बनी है, तो फिर वे क्यों बदलें और ये लोग अज्ञानता वश यह भी समझ बैठते हैं कि बिना किसी परिश्रम के ही इनकी सुन ली गयी है, अर्थात ये परफेक्ट हैं इन्हें किसी पवित्रात्मा को अलग से पाने वाने कि कोई जरुरत ही नहीं है ना ही कुछ बदलने की आवश्यकता है, अथवा कुछ लोगों को तो ये तक गलत फ़हमी हो जाती है की अरे भाई जब हमारी प्रार्थना ऐसे ही सुन ली गयी है तो निःसंदेह पवित्रात्मा हममें वास करते हैं, और शैतान बड़ी चालाकी से इन्हें इस बात का अहसास भी नहीं होने देता है कि, अनेकों अभिषिक्त सेवक, इनके जाने बगैर ही, आत्मा में होकर, इनके लिए प्रार्थना कर रहे होते हैं, और उन्हीं की करुण नाद सुनकर प्रभु इन पर रहम करते रहते हैं, परन्तु स्मरण रहे यह मध्यस्तता ज्यादा समय तक नहीं चलती है, क्योंकि वचन अतिस्पष्ट रीति से चिताकर कहता है कि *परमेश्वर का अनुग्रह मन फिराव को उत्पन्न करता है* और यह भी कि *उसके अनुग्रह को लुच्चपन में ना बदल डालें* प्रियजनों अगर आप चाहते हैं की आपकी प्रार्थना हमेशा सुनी जाये, तो आपको विधिवत रूप से अन्यभाषा के चिन्ह के साथ पवित्रात्मा को पाना ही पड़ेगा ताकि आप पवित्र आत्मा के दान रूपी परालौकिक विश्वास, अर्थात *परमेश्वर का विश्वास* को प्राप्त कर सकें lll

अतिप्रिय बंधुओं मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ अगर आप इसे भलीभांति समझ रहें हैं, अर्थात आप अपने इस जीवन के मूल्य को भलीभांति समझ रहे हैं और परमेश्वर की महिमा के लिए इसी जीवन में कुछ कर गुजरना चाहते हैं ताकि आप स्वर्ग के राज्य में आसानी से उत्प्रवेश कर सकें और उसी एक के साथ अनंतकाल तक जीवित रह सकें तो आपको मेरी बातों को अति गम्भीरता से लेने की आवश्यकता है lll

क्योंकि संदेह रूपी अति विनाशकारी रोग उसी में होता है जिसने पवित्रात्मा को विधिवत रूप से नहीं पाया हो और जो विश्वासी होने का पाखंड कर रहा हो, अर्थात जिसने अभी तक *परमेश्वर का विश्वास* को नहीं पाया हो lll

देखिये पवित्र शास्त्र बाइबिल के अनुसार आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि, *परमेश्वर में विश्वास* और *परमेश्वर का विश्वास* दो अलग अलग बातें हैं, परमेश्वर में विश्वास मनुष्य का स्वभाव है, जो स्थिति परिश्थितियों पर और मूड पर निर्भर होता है, वहीँ दूसरी ओर परमेश्वर का विश्वास पवित्रात्मा का दान है परमेश्वर का वरदान है जो एक मनुष्य को उस सृजनहार परमेश्वर में स्थिर तौर पर बनाए रखता है, और संदेह करने वालों के लिए मैं नहीं वरन परमेश्वर का वचन अति स्पष्ट रीति से कहता है कि - *पर यदि तुम में से किसी को बुद्धि की घटी हो (या किसी भी बात या वस्तु की घटी हो) तो परमेश्वर से मांगे, जो बिना उलाहना दिए सब को उदारता से देता है; और उस को दी जाएगी , पर "विश्वास से मांगे", और कुछ "सन्देह" न करे; क्योंकि सन्देह करने वाला समुद्र की लहर के समान है जो हवा से बहती और उछलती है। ऐसा मनुष्य यह न समझे, कि मुझे प्रभु से कुछ मिलेगा। वह व्यक्ति दुचित्ता है, और अपनी सारी बातों में चंचल है॥*

*(याकूब 1: 6-8)*

लिखने को तो और भी बहुत कुछ है कि पुस्तक ही भर जाए परन्तु इस संदेश को आदेशानुसार यहीं समाप्त करता हूँ lll

*अगला भाग अति शीघ्र ही* परमेश्वर अपने इस संदेश के द्वारा आपको बहुतायक की आशीष दे lll आमीन आमीन फिर आमीन lll