लोग पूछते है - कैसी है आप? कहा रह रही है और क्या कर रही है? इन लोगो को यह नहीं पता कि हमारे रास्ते अब अलग हो चले है। बिछड़े कई बरस हो गए। आंसू सूखे अरसा और दीदार किए मानो सादिया बित गई। गलती इन लोगो की नहीं है। इनसे में खुद बरसो बाद मिला हूं। लेकिन एक बात अच्छी हुई आज - पुरानी यादें ताज़ा हो गई। ये लोग पुराने किस्सों का जिक्र कर थकते नहीं।
ना जाने इनको मेरा किस्सा अब तक कैसे याद है? उन दिनों में भी तो सबको आपकी बाते फक्र से बताया करता था। लोगो के चेहरे खिल जाया करते थे। दिल्ली और हजारीबाग की दूरी चंद मिलो सी लगती थी। हमारी ज़िन्दगी फेसबुक के स्टेटस से कहीं जायदा रंगीन थी। Orkut के जमाने से शुरू हुई मोहब्बत इंस्टाग्राम के फिल्टर वाले जमाने तक हसीन थी।
रामगढ़ रेलवे स्टेशन से लेकर आपका रात में तीन बजे सत्तू का पराठे बनाने तक। वो रात कल बीती हुई रात मालूम होती है। बड़े से पीतल के पतीले में आटा डालना और उसमे दूध डालके उसे मलना, फिर सत्तू तैयार करना। आपके मा के हातो घर में निकाली हुई घी गरम तवे पे डाल गोल-गोल रोटी सेकना। अपनी आंखे बंद करता हूं तो मालूम होता है कल ही दिल्ली चला आया हूं आपका शहर छोड़।
रामगढ़ कैंट का वो प्लेटफार्म आज भी याद है मुझे। स्टेशन मास्टर का झन्ना के बोलना की केवल दो मिनट ही गाड़ी रूकेगी यहां। सेकंड एसी के पर्दे वाली प्राइवेसी जैसे हमारा बिछड़ना। और आपका ट्रेन को निहारना जब तक वो दिखना बंद ना हो जाए।
इन सब बातो को याद करता हूं तो मालूम होता है जैसे कल की ही बात हो। एक बूढ़ी औरत जैसे उजड़े हुए नुमाइश के मेले के बाहर सुराही बेच रही हो। लालटेन जलाए रंगीन और आबाद मेले को याद कर रही हो। आंखो में नमी नहीं बल्कि यादों के एक बड़ा भंडार दिखाई देता है।
सुमित सिंह