ट्रेन बरेली स्टेशन पर रुकी। ऋषभ,फ़ैज़ और अली तीनो काफी लंबा सफर करके आये थे,ऐसा उन्हें लगता था। सारा समान ऋषभ ने लाद रखा था क्योंकि वो सबमे ज़्यादा ताकतवर और निडर था,फ़ैज़ थोड़ा कम डरपोक और अली पूरा डरपोक था। गर्मियों की छुट्टी तो नही चल रही थी पर तीनो स्कूल को छोड़कर एक दिन के लिए घूमने चले आये। यहां बरेली में फ़ैज़ का पुश्तैनी मकान था, जैसा की उसे बताया गया था। भारी दोपहर में 4 मील पैदल यात्रा के बाद वो बंगले तक पोहच गए। आसमान में बदल छाए हुए थे और हल्की हल्की बूंदे पड़नी भी शुरू होगयी थी।
मकान काफी पुराना था जैसा की देखने में ही लग रहा था। पड़ोसी वो ऐसे की किसी को कोई मतलब नही।
"यही है न", ऋषभ ने पूछा
"हाँ, लग तो रहा है",फ़ैज़ ने जवाब दिया
"लग रहा है मतलब! तेरा घर है तुझे ही नही पता",ऋषभ ने गुस्से में कहा
"अबे, भड़क क्यों रहा है मैं यहां आखरी बार बचपन में आया था", फ़ैज़ ने जवाब दिया
"भाई , मेरी मानो तो चलो यहां से",अली ने डरते हुए कहा
"अभी घर में घुस नही पाए की ये जाने की बात कर रहा है", फ़ैज़ ने कहा
"इसे लाना ही नही था",ऋषभ ने कहा
"अब तो ले आए,झेलो",फ़ैज़ ने कहा
"तू तबतक दरवाज़ा खोल, तेरे पास चाभी ही न? मैं पानी भर के लाता हूँ।"ऋषभ ने जाते हुए कहा
फ़ैज़ अपने जेब में चाबी ढूंढता है पर वो नही मिलती क्योंकि चाबी जेब में नही फ़ैज़ ने गले में चेन की तरह पेहेन रखी थी। उसे याद आया और उसने चाबी से ताला खोला और जैसे ही दरवाज़े की कुंडी खोली दरवाज़ा चर्र की आवाज़ करता हुआ अपने आप खुल गया। दोनो डरके वहां से भागे और ऋषभ से टकरा गए।
"भाई भाई क्या हुआ?",ऋषभ ने पूछा
"भाई चल यहाँ से चल यहां भूत है",अली ने हड़बड़ाते हुए कहा
"इसका तो यही रोना है, जहां दो मकड़ी के जाल और पुराना घर देखा नही भूत भूत करना शुरू कर दिया",ऋषभ ने कहा
"मेरे घर वालो ने भी मना किया था की वहां मत जा, भाई चलते है अभी टाइम है", फ़ैज़ बोला
"तेरे घर वाले तो तुझे पढ़ने के लिए भी बोलते है पर तू कभी पड़ता है क्या",ऋषभ ने व्यंग किया
"ये मज़ाक नही है ऋषभ मैने खुद देखा वो दरवाज़ा अपने आप खुल गया था", अली चिल्लाया
"अरे बेवकूफ देख न बारिश हो रही है और हवा चल रही है , पुराने दीमक लगे दरवाज़े है खोकले होगये है तेरे दिमाग की तरह इसलिए हवा से खुल गए",ऋषभ समझते हुए बोला
"हाँ शायद तू सही है",फ़ैज़ ने कहा
"मै फिर भी नही रुकूँगा ", अली ने कहा
"शाम ढलने वाली है यार एक रात की बात है फिर कल तोह हमें चले ही जाना है", फ़ैज़ ने कहा।
अली ने हाँ में सर हिलाया पर दिल से वो अब भी घबरा रहा था, तीनो ने घर में प्रवेश किया, अली को सरसराहट होने लगी और रोंगटे खड़े होगये उसे कुछ महसूस हुआ था पर वो कह नही पाया। घर के बीचो बीच एक आंगन सा था और सामने एक कमरा और उससे सटा हुआ एक और कमरा और एक कमरा ठीक उसके सामने।
"चलो सब अपना अपना रूम देखलो",ऋषभ ने कहा
"अपना रूम?, सब एक में रहेंगे!",अली बोला
"हाँ सब एक में रहेंगे",फ़ैज़ ने कहा
"चलो जैसी तुम्हारी मर्ज़ी", ऋषभ ने कहा
फैसला हुआ कि सामने वाला कमरा सही है। फ़ैज़ ने कमरा खोला और एक अजीब सी हवा उसके चेहरे से टकराई। सारी चीज़ें अच्छी तरह से ढकी हुई थी।ऋषभ को याद आया की वो बैग तो बाहर ही भूल गया,वो बैग लेने जाता है।
फ़ैज़ कमरे के अंदर जाने ही वाला होता है इतने में बाहर से ऋषभ से के चिल्लाने की आवाज़ आती है, अली और फ़ैज़ दोनो भगते हुए ऋषभ के पास जाते है। वहां सब ठीक था।
"क्या हुआ बाहर क्यों आगये?", ऋषभ ने पूछा
"तु ही तो चिल्लाया अभी",अली ने कहा
"क्या आज भांग पीकर आया है कभी गेट? कभी चीख?",ऋषभ ने गुस्से भरे लहजे में कहा
"वो सही कह रहा है , मुझे भी आवाज़ आयी थी",फ़ैज़ बोला
"यह बढ़िया है, मेरी आवाज़ और मुझी को सुनाई नही दी",ऋषभ ने हस्ते हुए कहा
"चलो अंदर चलो , तुम दोनो को आराम की सख्त ज़रूरत है",ऋषभ बोला
तीनो वापस अंदर गए,इस बार फ़ैज़ जब कमरे में गया तो ये देखकर हैरान रहगया की कमरे का सारा समान तीतर-बितर था।
"ये काम तेरा है न अली?", फ़ैज़ ने कहा
"कैसा काम?",अली ने पूछा
"यही, के जब पहले मैन देखा तो सब समान अपनी जगह पर था लेकिन जैसे ही हम बाहर से अंदर आये सारा समान बिखरा पड़ा था",फ़ैज़ ने जवाब दिया
"मैंने पहले ही मना किया था यहां मत आओ, यहां भूत प्रेत का साया है ", अली बोला
"क्या खुसर फुसर कर रहे हो दोनो?"ऋषभ इतना कहते ही कमरे में चला गया
"इसे बड़ी जल्दी है!!", फ़ैज़ फुसफुसाया ,
"हाँ,मरने की", अली ने कहा और दोनो हस्ते हुए कमरे में गए।
कमरे में अंधेरा था एक पुरानी लालटेन और कुछ मोमबत्तियां रखी हुई थी, फ़ैज़ ने अपने लाइटर से मोमबत्तियां जलाई और सोफे के सामने रखी टेबल पर रख दी। तीनो थके हुए थे और भूखे भी।
"भूक लग रही है यार",ऋषभ कहता है
"सही में यार! घर से डाँट खाकर निकला था बस",फ़ैज़ कहता है
"तूने कुछ तो खाया ही है मैं तो खाली पेट आया हूँ के आया हूँ ",अली ने कहा
"अरे अपनी बकवास बन्द करो दोनो ,मैं कुछ खाने के लिए लाता हूँ शायद कोई दुकान मिल जाए!",ऋषभ बोला
"हाँ, जल्दी जा यार पेट में चूहे आत्महत्या कर रहे है!", फ़ैज़ ने कहा
"नौटंकी!", ऋषभ फुसफुसाया और चल दिया।
कुछ देर बाद एक ठंडी सी हवा कमरे में दाखिल हुई और सारी मोमबत्तियां बुझ गयी ,कमरे के पर्दे उड़ने लगे और बिजली जैसी चमक चारो तरफ कड़कड़ाने लगी, अली और फ़ैज़ एक दूसरे को पकड़े हुए ये भयावह मंज़र देख ही रहे थे की अचानक कमरे का दरवाजा एक ज़ोर की आवाज़ के साथ बंद होगया।अली भाग कर दरवाज़े की तरफ गया और खोलने की कोशिश करने लगा ,फ़ैज़ ने भी उसका साथ दिया पर कोई बात नही बनी। दोनी काफी घबरा गए थे और अली बेहोश होकर गिर पड़ा, फ़ैज़ को भी अजीब-अजीब रोने और चिल्लाने
की आवाज़े सुनाई दी और वो भी कान पकड़कर बैठ गया और कब आंख लग गयी पता नही चला।
कुछ देर बाद ऋषभ कमरे की तरफ आया , दरवाज़ा खुला हुआ था और मोमबत्तियां जल रही थी अली और फ़ैज़ फर्श पर पड़े हुए थे। ऋषभ ने दोनो के चेहरे पर पानी छिड़का और दोनो आंखे मसलते हुए उठ खड़े हुए,
दोनो को वो मंज़र अब तक याद था अली ने हड़बड़ी में कहा,"मेरा बैग कहाँ है यहां एक पल भी नही रुकूँगा यहां कुछ गड़बड़ है, फ़ैज़ चल!"
"अरे! अरे! बता तो हुआ क्या यहां क्यों पड़े थे दोनों?," ऋषभ ने कहा
"बताने को कुछ नही बचा तू बस चल फ़ैज़ हम चलते है इसे यही मरने दे",अली ने कहा।
"पागल होगये हो क्या दोनो! जबसे आये हो भूत भूत भूत !
"शाम ढल रही है और ऊपर से बाहर इतनी तेज़ बारिश है सारी दुकाने बन्द है,खाने पीने को कुछ नही है, और तुम दिमाग खराब कर रहे हो दोनो,
बस एक रात की बात है , हम कोई बसने थोड़ी आये हैं।" ऋषभ ने कहा
"कैसे भी करके सवेरा होजाये और यहां से निकलूँ", फ़ैज़ ने कहा
"तुम्हारी एक रात के चक्कर में मुझे अपना कल का सवेरा बर्बाद नही करना, क्या भरोसा है कल हमारी आँखे खुले या नहीं", अली बोला
"अरे यार! इसको लाये ही गलत", ऋषभ ने कहा
"चलो, पानी पीकर सोजाओ कल सवेरा होते ही यहाँ से नौ दो ग्यारह हो लेंगे!", फ़ैज़ ने कहा
"ह्म्म्म", अली ने हाँ में सर हिलाया
बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी, और हवा तेज़ थी कड़कती हुई बिजली की आवाज़ मंज़र को एक भयावह रूप दे रही थी और तीनो जैसे तैसे सोने की कोशिश कर रहे थे।ऋषभ को तो नींद आगयी थी पर अली और फ़ैज़ नही सोये थे।
"इसे कैसे नींद आगयी?",फ़ैज़ बोला
"साला, यहां हमारी नींद हराम है और ये घोडे बेचकर सो रहा है",अली बोला
"भाई कुछ तो है इस घर में",फ़ैज़ ने कहा
"और मैं क्या भजन गा रहा था जबसे आया हु यही तो कह रहा हूँ कुछ तो है यहां!!!",अली ने ये कहा ही था की उनकी चादर हवा में उड़ने लगी और दोनो ख़ौफ़ज़दा होगये।
दोनो ने ऋषभ को उठाने की कोशिश की पर वो नही उठा और वो दोनो हड़बड़ाहट में कमरे से बाहर जाने के लिए दरवाज़ा के पास जाने लगे पर घर में गुप् अंधेरा था,अली ने टेबल पर रखी लालटेन उठायी और बाहर जाने के दरवाज़ा खोला और आंगन का मंज़र देखकर हैरान थे। ऋषभ की लाश आंगन में खून से लतपत पड़ी हुई थी दोनो कमरे के अंदर गए तो देखा ऋषभ वहां नही था। दोनो के कुछ समझ नही आरहा था की एकपल में ये सब कैसे हुआ । दोनो ऋषभ की लाश को पकड़ कर बिलख रहे थे और ये सब सपने जैसा लग रहा था पर ये सब उनकी ज़िनदगी की हक़ीक़त थी।
तभी घर के सारे दरवाज़े ज़ोर के आवाज़ करके एक साथ बन्द होगये और उनकी लालटेन भी बुझ गयी। आखिर ये क्या बला थी जो इस कदर सुलूक कर रही थी!, यही सवाल अली चीख-चीख कर फ़ैज़ से पूछ रहा था।
"ये मुझे पहले ही बता देना चाहिए था!"फौज ने भरी आंखों से कहा
"क्या?", अली ने पूछा
"लेकिन में तुम्हे डराना नही चाहता था",फ़ैज़ ने कहा
"अरे लेकिन क्या??",अली ने आवेश में कहा
दोनो कमरे की तरफ गए और फ़ैज़ ने लालटेन जलाकर कहा,"तुझे सुनना है,तोह सुन!"
"कभी ये घर यहां के मशहूर शायर 'मिज़ाज़' का हुआ करता था।अब्बू बताते थे की मेरे दादा जी अक्सर शेर ओ शायरी की महफिलें सजाया करते थे बड़े पैमाने पर, तब इनकी तिकड़ी मिज़ाज़ मोहन फ़राज़ के नाम से जानी जाती थी , उस समय का हज़ारों रुपया इकट्ठा होता था शराब-ओ-अय्याशी के लिए । और कोठे पर मुजरा और हुक्के के धुएं में कब ये दौलत धुआं होना शुरू हुई पता नही चला। इस दौरान मिज़ाज़ साहब ने निकाह किया इल्तज़ा नाम की लड़की से जिससे वो बेहद प्यार करते थे उन्होंने ये महफ़िलें छोड़कर अपनी दुनिया इसी घर में बसा रखी थी,
इसके आंगन में जब सुबह की धूप अंगड़ाई लेती थी तो समां बंध जाता था, चहचहाती हुई इल्तेज़ा जब मिज़ाज़ साहब की कलम लेकर उनकी हथेलियों में अपना नाम लिखती थी तो लगता था की ग़ज़ल के शेर लिखे हो।
इनकी दुनिया को नज़र लगी इन्ही के दोनो दोस्त मोहन और फ़राज़ की मोहन खन्ना ऋषभ के दादा जी थे और फ़राज़ मेरे पहले हम बरेली के रहने वाले ही थे। महफ़िलें जब मिज़ाज़ ने बन्द की तो दोनो कर्ज़ में डूब गए।
अपनी ही फटेहाल हालत का ज़िम्मेदार वो मिज़ाज़ को मानते थे। उनसे मिज़ाज़ की ख़ुशियाँ देखी न गयी और षड्यंत्र रचने लगे, उन्होंने सोचा की मिज़ाज़ का दुनियां में इल्तेज़ा के सिवा कोई नही तो पहले इसे ही रास्ते से हटाया जाए, एक शाम जब मिज़ाज़ घर से बाहर थे तब दोनो अचानक घर पर आ पोहचे, इल्तेज़ा छत पर कपड़े सुखा रही ही थी कि फ़राज़ पीछे से आ धमका और इल्तेज़ा को धक्का दे दिया! सर के बल गिरने से इल्तेज़ा का मौत फौरन होगयी और बताया गया की पानी पर फिसल कर छत से गिरी।
दोनो अपने मंसूबे में कामयाब रहे, और मिज़ाज़ गहरे अवसाद में पोहोच गए उनकी तो पूरी दुनिया ही लूट ली गयी। हाथों में कलम की जगह शराब की बोतल ने ले ली और आँखों में ख़ुशियों की जगह आंसुओं ने।
अब दोनो ने सोचा की मिज़ाज़ को भी किनारे करके ये घर हथियाया जाए।
एक अमावस की रात दोनो मिज़ाज़ के घर पोहचे पर देखा की मिज़ाज़ शराब के नशे में नही था वो ग़म से उबर रहा था। पर दोनो को अपना काम अंजाम तक लाना था मोहन के हाथ में चाकू था फ़राज़ ने उसे पकड़ा और कत्ल की वो रात फ़राज़ और मोहन के नाम हुई। बाहर से पुलिस का साईरन बजने की आवाज़े आयी तो डर के मारे मिज़ाज़ की लाश यही आंगन में ही दफना दी। अगले सुबह घर से सारे सबूत मिटा कर और घर पर ताला डालकर फ़राज़ और मोहन चल दिए और चाबी हमारे पास थी।
मरते वक़्त मिज़ाज़ ने क़सम खाई की जबतक वो फ़राज़ और मोहन का लहू नहीं पी लेता उसकी आत्मा को चैन नही पड़ेगा। मैंने हमेशा इस दास्तान को मनगढ़ंत और दकियानूसी समझा पर आज महसूस हुआ की अब्बू सही थे,उन्होंने मना किया था की वहां मत जाओ मैं नही माना और अब ये सब होरहा है इसका ज़िम्मेदार मैं हूँ! ऋषभ का ज़िम्मेदार मैं हूँ!",फ़ैज़ ने कहा।
और एक सर्द हवा ने दस्तक दी, लालटेन की लौ डगमगा रही थी और दोनो के आँसू सूख चुके थे। घड़ी में 12 बज रहे थे। दोनो ने ऋषभ की लाश को देखने गए तो वहां लाश नहीं थी।
"कहाँ गयी लाश?", अली ने पूछा
"मुझे क्या पता मैं तो तेरे साथ था",फ़ैज़ ने जवाब दिया
अली ने गुस्से में लालटेन दीवार मार कर दी और चिल्लाया,"देख तू जो भी है, एक बर्बाद रूह से ज़्यादा कुछ नहीं है! हिम्मत है तो सामने आ"।
तभी एक आवाज़ ने उनका ध्यान अपनी तरफ खींचा।
"बर्बाद रूह! किया किसने !!....... तुमहारे दोस्तों ने!
अरे मैं तो आबाद था अपनी दुनिया में...ये घर, ये सबकुछ मेरी दुनिया थी।गर कुछ बर्बाद हुआ है तो उसके ज़िम्मेदार तुम्हारे दोस्त है, मैंने कहा था न की मेरी प्यास इनके लहू से बुझेगी। एक का तो लहू पी लिया दूसरे की बारी है"
"रू-बरू होने की हिम्मत है?",अली चिल्ला कर बोला
"अगर मैं रूबरू हो गया न बच्चे, तुम किसी से रू-बरू होने के लिए ज़िंदा नही बचोगे।"
अचानक एक बिजली चमकी अली के पीछे एक काली छाया,जिसके चेहरे पर खून के दाग और आंखों के पास काले घेरे थे, वो सूरत उस शैतान की थी जिसने कसम खाई थी खून पीने की।
एक डरावनी मुस्कान के साथ बोला ," लो जनाब! शायर मिज़ाज़ हाज़िर है आपकी खिदमत में", और दोनो हाथ अली के गले के पास और एक झटके में जान ले ली। ये मंज़र देखकर फ़ैज़ के पसीने छूट गए ।
अब सिर्फ फ़ैज़ बचा था। फ़ैज़ बचने के लिए पूरे घर में इधर से उधर भाग रहा था लेकिन हर जगह वो शैतान उसके पीछे लगा था।
उसे मज़ा आरहा है फ़ैज़ को तड़पने कमरों के दरवाज़े कभी खुलते थे तो कभी बन्द होते थे। फ़ैज़ ने सोचा की मरना तो है ही लेकिन इसकी प्यास को कभी बुझने न देगा। कमरे में लालटेन के तेल की केन रखी थी । फ़ैज़ ने लालटेन का तेल अपने ऊपर डालकर खुद को आग लगा ली और शैतान एक और वक़्त के लिए प्यासा रह गया था। उसकी रूह को शांति नही मिली और वहीं ये भटकता रहा।